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[८७ ] सुश पाठको! सोचिये, भाड़े की कमाई जैसे कार्य जो कि कर्मादान में गिने गये हैं- गाड़ियों के धन्धे आदि सभी व्यवसाय १५ महान् पाप कार्यो में प्रभु ने बतलाये हैं, परन्तु क्या कृषि को ऐसी पाप रूप मानी है ? आश्चर्य है कि हमारे वर्तमान श्रावक समाज में उपरोक्त व्यवसायों में जो कि धर्मशात्र की दृष्टि से निन्दित हैं—पाये जाते हैं परन्तु खेती जो कि कर्तव्य कार्य है--जिसले धन की प्राप्ति एवं धर्म की रक्षा होती है बहुत अल्पांश में अथवा यों कहें कि नगण्य रूप में दृष्टिगोचर होती है । इस कृषि-कर्म के त्याग के साथ हम न केवल जैन धर्म के प्रादों का नाश कर रहे हैं, अपितु सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति को रसातल में ले जाने में अपना पूर्ण सहयोग दे रहे हैं।
उपसंहार-हा! हमारे जिन पूर्वजों ने कृषि के बल पर अपनी धवल कीर्ति एवं उज्ज्वल यश भूमण्डल में प्रसारित किया था, इस पवित्र यशानुष्ठान से अमरता प्राप्त की थी उसी व्यवसाय को तिलांजली देकर अपने पूज्य पूर्वजों के नाम पर कलंक-कालिख पोतले हुए हमें किंचित् भी लज्जा का अनुभव नहीं होता। १८ पापस्थानकों का हम सेवन न करें तो हम अपने में मनुष्यत्व नहीं समझते, १५ कर्मादानों को कार्य रूप में हम न कर दिखावें तो हम मनुष्य जीवन की निरर्थकता सी अनुभव करते हैं। भारतीय संस्कृति के विनाशक वर्तमान विज्ञान-शास्त्र के पीछे बुरी तरह से पड़ कर ज्यादा से ज्यादा ऐश नाराम एवं भोग विलास की लिप्सा से अभोग्य भोगों को भोग कर अकर्स भूमि के जीवों की भॉति अकर्मण्य बन जाने में अपना अहोभाग्य समझते हैं एवं अपने भाग्य की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। यह सब हमारे भयंकर पतन की प्राथमिक सूचना ही है।
ऐश पारा
कर्म भूमि
समझते है