________________
[ ३३ ] यच्च कामसुखं लोके यच्च दिव्यं महत् सुखम् ।
सृष्णाक्षयसुखस्यैते, नाहतः पीडशी कलाम् ॥ मानवजीवनना मुख्य पुरुषार्थ लो-धर्म, अर्थ अने काम, पुरुषार्थ विना जेम था लोकमां सिद्धि थती नथी, तेमज पुरुपार्थ विना मोक्ष मली शकतो नथी. परन्तु अ पण ध्यानमां राखवानुं छे के अकला अर्थनी पाछलज प्रयत्न करनार माणस के अकला कामनी पाछल प्रयत्न करनार माणस विपथे पड़े छे. अर्थ अने काम जो धर्मथी संकलित होय तोज विषय कषाय रहित जीवन गाली शकाय छे. सोमप्रभ सूरि कहे छे
त्रिवर्गसंसाधनमन्तरेण, पशोरिवायुविफलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, न तं विना यद् भवतोऽर्थकामौ ।।
-सिन्दूरप्रकर धर्म अने कर्म वञ्चे मूलगत विरोधनथी. कर्म पाचरनार जो धर्ममय होय तो कर्म आचरवामां विरोध नथी. अ कर्म राग, द्वेष मोहथी न थq जोइए पण लोकसंग्रहाथै थQ जोइए. गीतानो स्थितप्रज्ञ के जैन साधु रे राग मोह इत्यादिथी रंगाला न होय. अने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य अपरिग्रह ने अनुसरतो होय तो लोकसंग्रहार्थ करेला कर्म वन्धनकर्ता नथी थतां. जे माणसने जे कर्म अनुरूप होय ते तेणे कर्येज छुटको. अने तेमांज तेनं अने जनसमाजनुं कल्याण
समाअखें छे. जो धर्म जशे, तो मानवसंस्कृतिनो पायो खल__ भली उठशे. अने पशुजीवन अने मनुष्यजीवनमां कई मेद नहीं