Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla
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[ ६६ ]
विशिष्टः, श्रानुषङ्गिकः कृष्याद्यनुपट्ट े जातः कृष्यादी क्रियमा सम्भवनित्यर्थः
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टीका अर्थने लगभग स्पष्ट करी ज नाखे छे छतां केटलीक चर्चा आवश्यक छे.
श्लोक दसमामां श्रेम जणान्युं छे के गृहस्थे श्रावके श्रनारंभज हिंसा ग्रेटले के संकल्प हिंसा - नो त्याग करवो; श्रारंभज हिंसा छोडी शकाय नहिं, माटे से आरंभ करती वेला यतना राखवी. जेम व्यर्थ स्थावर जीवो न हरणाय तेनी यतना राखवा मां आवे छे तेम आरंभज हिंसामां व्यर्थ जीवो न हणाय तेनी यतना राखवी. श्लोकने सरल रीते गोठवीओ
अनारम्भजां हिंसां जह्यात् श्रारम्भजां प्रति गृही व्यर्थ - स्थावरहिंसावत् यतनाम् श्रावहेत् ।
अने टीकामां स्पष्टपणे जरा व्युं छे के कृषि श्रारम्भज हिंसा छे. ते श्राचरवी अवश्य, परन्तु यतना राखवी.
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श्लोक वारमामां प्रेम जरणान्युं छे के हिंसा श्राचरया वगर गृहवास थई शक्रेज नहिं. माटे मुख्य वध अर्थात् संकल्प हिंसा न, जेने मुख्य हिंसा गणवामां श्रावी छे-छोडवो, अने अ न छोडी शकाय तेवी प्रारम्भ हिंसा सावधानीथी करवी. अने से आरम्भना उदाहरणमां अहिं पण कृप्यादि हिंसा गरणायी के.
टले, या वने श्लोको अने ग्रेनी टीका श्रो जोतां मेटलुं स्पष्ट थाय छे के गृहस्थोने प्रारम्भ हिंसा बाधक नथी, मेमणे

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