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[७७ ] प्रथम तथा चतुर्थ मेद की व्याख्या करके अपने प्रतिपाद्यविषय का विवेचन करना ज्यादा युक्तियुक्त होगा। क्षेत्रायःपन्दरह कर्म भूमियों में जन्म धारण करने वाला ही क्षेत्रार्य कहा जाता है। कर्म की दृष्टि से वही आर्य कहा जाता है जो अनाचार्यक कर्म की अपेक्षा से आर्य है । यथा-यजन, याजन, अध्ययनाध्यापन, कृषि, वाणिज्य तथा लेखनादि के कर्ता कार्य की कोटि में परिगणित किये जाते हैं । कार्य के उक्त विवेचन से हमारे विषय की पुष्टि में पूर्ण समर्थन मिलता है कि प्राचीन काल में जिस प्रकार अध्ययनाध्यापनादि कार्य वरेण्य एव ग्राह्य समझे जाते थे उसी प्रकार कृषि कर्म भी एक पवित्र कार्य समझा जाता था। यद्यपि जैन धर्म का सार एक शब्द में कहा जाय तो 'त्याग' है परन्तु जहाँ तक मर्यादित गृहस्थ जीवन यापन किया जाता है वहाँ तक प्रत्येक मानव को प्रजा-पोषक एवं अल्पारंभजन्य किसी न किसी वृत्ति का आश्रय लेना ही पड़ता है। ऐसी वृत्ति यदि विश्व में कोई होवे तो कृषि के अतिरिक्त अन्य दृष्टि गोचर नहीं होती। कृषिकर्म जैन शास्त्रों के अन्दर विहित है या निपिद्ध ? इस समस्या को सामान्यतया सुगम बनाने के लिए श्री मदुपासकदशांगसूत्र के प्राधार से इसकी सिद्धि हो सकती है क्योंकि कृपि-कार्य गृहस्थ के द्वारा ही किया जा सकता है किसी साधु, संन्यासी अथवा सर्वथा त्यागी पुरुषों द्वारा नहीं। अतः प्रस्तुत विपय की पुष्टि के लिये हमें अपने लिए आदर्श-खरूप धर्म-प्राण एवं मर्यादाजीवी श्रमण भगवान महावीर स्वामी के श्रावकों