Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 92
________________ [८० ] यदि कृषि कर्म धर्म-शास्त्रों में उद्दिष्ट नहीं होता तो स्थानांग सूत्र के ९ वें स्थानक में ६७६ वे सूत्र में पुण्य के ९ मेद __ के 'अन्न पुण्ये, एवं वस्त्र पुण्ये, आदि जो भेद किये हैं, उन भेदों से स्पष्ट ध्वनित होता है कि अन्न एवं वस्त्रादि का दान देने से पुण्य होता है-पुण्य ही नहीं अपितु शुभ भावनाओं के योग से तीर्थङ्कर नाम कर्म तक उपार्जित किया जा सकता है। सुन्न पाठको ! अब बतलाइये कि कृषि ही न की जाय तो कृषि से उत्पन्न होने वाले फल रूप अन्न एवं वस्त्र की प्राप्ति तो स्वप्नवत् ही रहे या नहीं ? फिर उन पदार्थों के पुण्य की तो कल्पना ही वृथा है। पुण्य की वात तो दूर रही, अपना स्वयं का निर्वाह असंभव हो जाय । वर्तमान में भारतवर्ष में सैकड़ों मीले चल रही है, और करोड़ों रुपयों का कपड़ा विदेशी यंत्रों के आधार पर तैयार कर रही हैं। परन्तु यदि कृपक कृपि न करे, कपास न वोवे तो उन मिल मालिकों को अपने करोड़ों के व्यवसाय के लिये रुई कहाँ से प्राप्त हो ? वे अपने कारखाने किस आधार से चलावे ? नात्पर्य यह है कि कृपि किये विना न तो खाने को दाना पान हे न पहिनने को वस्त्र । अतः हमें वरबस इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ना है कि सम्पूर्ण विश्व में और खास कर इस कृषि प्रधान देश में जितने भी प्रधान एवं बड़े बड़े व्यवमाय हैं सभी ऋषिमूलक है, बिना कृषि के सभी विना प.के की गन्यवत् शुन्य है।

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