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[ ८३ ] आश्रय भूत नहीं होती, उसके समीप यदि अन्न भण्डार की कमा के सिवाय अन्य सभी प्रकार की सम्पत्तियाँ पुर्ण रूपेण विद्यमान हों, परन्तु ऐसे समय में वे सभी सम्पत्तियाँ नगण्य है। प्रत्येक विचारवान् मानवी यह सोच सकता है कि ऐसे समय में वास्तविक सम्पत्ति क्या है ? अस्तु
राजनैतिक दृष्टिकोण से यह ज्ञात होता है कि विना कृषि के किसी भी राज्य की नींव मजबूत होना एवं उस देश का धनधान्यसम्पन्न होना मुश्किल है। यदि कृपि न की जाय तो "शप्ठांशमुर्त्या इव क्षितायाः" के नियमानुसार राज्य को खेती के कर एवं जगान की प्राय भी नहीं हो सकती। राजनीति तो यहाँ तक मानने को बाध्य करती है कि सच्चा अन्नदाता कृपक है एवं सच्ची सम्पत्ति भी कृषि द्वारा उपाजिन धन-धान्यादिक ही है।
कृषि विषय को शास्त्रविहित सिद्ध करने के लिए यदि आध्यात्मिक दृष्टिकोण लिया जाय तो विदित होता है कि कृषि करने वाले के हृदय में स्वभावतः उदारता, हृदय की विशालता, प्रकृति-सारल्य, निष्कपटपना आदि आत्मा के स्वाभाविक धर्मों का यथेए रूप से नैसर्गिक विकास होता है। अन्य व्यवसायियों में उपरोक्त गुणों का पाना तो ठीक परन्तु तद्वि. षयक कल्पना भी असंगत है।
जिस प्रकार पूज्य बापूजी का चरखा सद्विचारों का प्रेरक, एक ध्यानतानुप्राणक, स्वावलम्बन का शिक्षक तथा । परतंत्रता-पाश से मुक्ति दिलाने का मूल मन्त्र है उसी प्रकार