Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 96
________________ [ ८ ] श्रार्य-संस्कृति की विनाश रूप अवनति अपनी आँखों हमें अपने कमनसीब से देखनी पड़ती है । यदि प्रत्येक भारतीय प्रजा अपने मूल व्यवसाय कृषि को कायम रखती हुई अन्य पेशों की ओर ध्यान देती तो यह ज्यादा सफल, सम्पन्न तथा सविशेष समुन्नत होती । फिर चाहे भारत सरकार करोड़ों क्या अब सन धान तक इस भारत वसुन्धरा से विदेशों को ले जाती तो भी हमारे को भूखों मरने की नौबत न आती । हमें यह स्मरण रखना चाहिए कि प्राचीन काल में जब यही श्रार्यभूमि स्वर्ण भारत नाम से प्रख्यात थी, वह केवल इसी कृषिकर्म के वलपर । क्योंकि वर्तमान विज्ञानवाद एवं भौतिकवाद उस समय प्रचलित नहीं थे । प्रस्तुत विषय पर साम्पत्तिक शास्त्र को लक्ष्य में रख कर विचार किया जाय तो यह निष्कर्ष निकलता है कि कृषि ही किमी गृहस्थ की सच्ची सम्पत्ति है । श्रानन्दादि श्रावकों ने अपनी सम्पत्ति के चार विभाग किये थे । उसमें चतुर्थांश कृषि के लिए भी रखा था - वह काल इतना सुखद था कि जीवन निर्वाह तो मानव मात्र के लिये सामान्य बात थी फिर भी श्रानन्द श्रावक जैसे महान् श्रावकों ने अपनी सम्पत्ति का चौथा हिंसा कृषि के लिए रखा था उसमें भावी प्रजा के कल्याण का भी अवश्य ध्यान रखा गया होगा ऐसा विना स्वीकार किये हमारी बुद्धि, संतोष नहीं मानती । श्रापत्ति काल में दुर्भिक्षादि में धातुम्प सम्पत्ति सोना चांदी, स्थावर सम्पत्ति मकान भवनादि, तथा वस्त्र रूप सम्पत्ति मनुष्य को

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