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गरीव से गरीव एवं दलित से दलित मानव इसको कर सकता है एवं दुनिया में अपना व्यवहार चला सकता है। यह व्यावहारिक कार्य है इसमें कोई बड़ी कलाओं की भी आवश्यकता नहीं पड़ती है अतः उपरोक्त सभी दृटियो से कृषि उत्तम है।
कुछ लोग जो कि अन्धश्रद्धा अथवा अविचार के शिकार बने हुए हैं. इस विषय में एक आड़ यह रखते हैं कि श्रावक के आठवें अनर्थादण्ड के ५ अतिचारों में 'पावकम्मोचएसे' नामक एक अनर्थ दण्ड है-तथा उसका अर्थ सामान्य तौर पर वे अपनी स्थूल वुद्धि से यह करते हैं कि ऐसा कोई भी कार्य जिसमें पाप लगने का अन्देशा हो नहीं करना चाहिये-ऐसा उनके मत से इस पाठ से ध्वनित होता है। परन्तु 'आवश्यक सुत्र' की टीका में देखा जाय तो इस विषय का किंचिन्मात्र भी उल्लेख नहीं। दुनिया की पच्चीसों क्रियाओं को शास्त्रकार ने अनर्थ दण्ड तथा पाप रूप परिगणित किया है परन्तु कृषि अथवा इससे सम्बन्ध रखने वाले किसी कार्य को अनर्थ दण्ड अथवा पापरूप मानने का कोई हेतु शास्त्र में दहिगोचर नहीं होता । इसकी सिद्धि का एक बहुत बड़ा प्रमाण यदि शोधा जाय तो यह भी कहा जा सकता है चरम तीर्थकर श्रमण भगवान महावीर स्वामी की उपस्थिति में कई एक उद्यान रहते थे-नाना प्रकार के फल फूलों की उत्पत्ति के साथ साथ कृपि भी की जाती थी, सहस्त्रानं वाग एवं कई प्रकार के उद्यानों का वर्णन प्रत्येक शास्त्र में श्राता है- यहाँ तक कि