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[८६] उन उद्यानों में स्वयं प्रभु महावीर के ठहरने का वर्णन स्थान स्थान पर पाता है यदि यह निन्य कर्म होता तो प्रथम तो प्रभु इसके करने में दोप है इस बात का वर्णन अवश्य करते, दुसरे स्वयं निरवद्य स्थान देकर उन उद्यानों में नहीं ठहरते । क्योंकि उद्यान एवं सहस्रान वन भी तो एक प्रकार के खेती के ही अंग हैं। यदि कोई शंका करे कि प्रभु के तो अतिशय होते हैं अतः उनको इसमें कोई दोष नहीं लग सकता तो प्रभु के पश्चात् उनके शिष्य सुधर्मास्वामी भी तो इसी प्रकार के उद्यानों में विचरण करते थे। यदि यह कर्म निन्दनीय होता तो क्या उन महापुल्पों को अपनी भावी सन्तति को हित-बुद्धि सुझाने का तथा उसकी कल्याण कामना का कुछ भी खयाल न रहा होगा। अतः बुद्धि के व्यायाम एवं प्रस्तार से इसी निर्णय पर पहुँचना पड़ता है कि कृषि-कर्म जैन-धर्म के प्रत्येक दृष्टिकोण से अनुकूल एवं हितावह है।
'आवश्यक सूत्र में जहाँ श्रावक के कार्य कार्यो का वर्णन पाया है वहाँ कपि यकार्य है ऐसा एक भी वाक्य उपलब्ध नहीं होता । जैसा कि निम्न गाथा से स्पष्ट होगा
इंगाली, वण, साडी, भांडी फोडी सुवजए कम्म । वाणिज' चेव य दन्तं. लक्स रस केस विस विसयं ॥ १ ॥ एवं खु जंतपिल्लण कम्मं, निल्छणं च दवदाणं; सरदहतलाय सोसं, असइपोमं च वजिज्जा ॥ २ ॥ अर्थात् उक्त २५ कर्मादान जिससे जैन धर्मानुसारी श्रावक को भारी कमी का बन्धन होता है सबेथा त्याज्य है।