Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 90
________________ [७] के जीवन चरित की ओर दृष्टिपात करना युक्ति संगत होगा। श्रीमदुपासकदशांग सूत्र में जहाँ आनन्दादि श्रावकों का सविस्तर वर्णन किया है, वहाँ अानन्द श्रावक के त्यागप्रकरण में जब वे अपनी सम्पूर्ण परिग्रह सम्बन्धी इच्छाओं का परिमारण करते हैं; यह उल्लेख स्पष्ट पाता है कि "तदाएन्तरं खेत्त-वत्थुविहं परिमाणं करेन्ति" सूत्र पाठ से स्पष्ट सूचित होता है कि क्षेत्र-विधि की इच्छाओं का परिमाण-मात्र किया जाता है त्याग नहीं। यदि त्याग किया जाता होता अथवा क्षेत्र-विधि (कृपि-फर्म) निपिद्ध होती नो 'परिमाण' की जगह 'पञ्चक्खा' शब्द होता। क्योंकि जैन-शास्त्रों में कहीं किसी भी कार्य को निन्द्य कहा जाता है तो स्थान स्थान पर 'पच्चक्खाण' शब्द अवश्य दे दिया जाता है अतः कृषि-कर्म अवश्य विहित है, ऐसा निर्विवाद सिद्ध हो जाता है। श्रावक के १२ व्रतों में प्रत्येक व्रत के ५-५ तिचार हैं एवं सावधकार्य युक्त कार्यों का प्रत्येक व्रत में तत्तत्सम्बधी पापों के त्याग का श्रावक प्रत्याख्यान करता है परन्तु कृषि कर्म के प्रत्याख्यान का उल्लेख कहीं पर भी नहीं देखा जाता। इसका कारण यही कि गृहस्थधर्म के लिये कृपि-कर्म अनिवार्य, आवश्यक एवं सर्वथा ग्राह्य-व्यवसाय है। सातवे उपभोग व्रत में जहाँ २६ बोल की मर्यादा एवं तदतिरित प्रत्येक वस्तु का त्याग किया जाता है, वहां कृपि- सम्बन्धी कोई उल्लेख नहीं पाया जाता। यदि कृपि-कर्म

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