Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 88
________________ [७६ ] को श्रेयस्कर क्यों कहा जाय ? इस संकटमय जीवन-भूमि को भी मानव जीवन के लिए उपादेय क्यों माना जाय ? उपरोक्त शंका का समाधान यही है कि उस निष्कर्मण्य एवं परवश जीवन से क्या जहाँ विना स्वोपार्जित वाह्यसाधनों के उदरपूर्ति भी दुष्कर हो जाय । यद्यपि यह भूमि संकटमय जीवन भूमि है-परन्तु जिस प्रकार स्वर्ण की संघर्पणादि चार प्रकार से परीक्षा होती है उसी प्रकार से त्याग, गील, गुण एवं कर्म के द्वारा मनुप्य की भी कसौटी की जाती है-इस भूमि में मानव अपने विकास का एवं सन्मार्ग का शोधक वनता है-आवागमन के भव-भ्रमण के चक्कर में से निकल सकता है। प्रथम यहाँका जीवन संकटापन्न एवं दुःखद दृष्टिगोचर होता है परन्तु पुरुषार्थ की उच्चतम कसौटी से मनुप्य-मात्र स्ववशता (आत्मविजय ) को सहज ही वरण कर सकता है। यह जीवन प्रथम पापकारी एवं प्रवृत्तिमय भी हो परन्तु प्रवृत्ति में से निवृत्ति प्राप्त करना ही यथार्थ विजय है। विपय-प्रवेश--- उपरोक्त कर्म भूमि का वर्णन करते हुए प्राचार्य श्री उमास्वाति ने अपने तत्वार्थ सूत्र में मनुष्यों के दूसरी तरह से दो मेद किये है-"प्रार्या म्लेच्छाश्च" प्रार्य शब्द के विस्तृत विवेचन में प्राचार्य श्रकलंक देव ने प्रार्य के ६ भेद किये है:-१ क्षेत्रार्य, २ जात्याय, ३ कुलार्य, ४ कर्माय, ५ शिल्पार्य पारम्भापार्य। मनुचित विपय विस्तार के भय से यहाँ केवल

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