Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla
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[६२] . विशिष्टः, श्रानुपनिकः कृप्याद्यनुषग जातः कृप्यादी क्रियमाणे सम्भवनित्यर्थः।
टीका अर्थने लगभग स्पष्ट करी ज नाखे छे छता केटलीक चर्चा आवश्यक छे.
श्लोक दसमामा प्रेम जणाव्यु छे के गृहस्थे श्रावके अनारंभज हिंसा अटले के संकल्पहिंसा-नो त्याग करवो; प्रारंभज हिंसा छोडीशकाय नहि. माटे प्रारंभ करती वेलायतना राखवी. जेम व्यर्थ स्थावर जीवो न हणाय तेनी यतना राखवा मां आवे छे तेम प्रारंभज हिंसामा व्यर्थ जीवो न हणाय तेनी यतना राखची. श्लोकने सरल रीते गोठवी
अनारम्भजां हिंसां जह्यातः आरम्भजां प्रति गृही व्यर्थस्थावरहिंसावत् यतनाम् आवहेत् ।
अने टीकामांरपष्टपणे जाव्यु के के कृषि प्रारम्भज हिंसा छे. ते पाचरवी अवश्य, परन्तु यतना राखवी. __ श्लोक वारमामां आम जणाव्यु छे के हिंसा प्राचरचा वगर गृहवास थई शकेज नहिं. माटे मुख्य वध-अर्थात् संकल्प हिंसा ज, जेने मुख्य हिंसा गणवामां प्रावी छे छोडचो, अने से न छोडी शकाय तेवी प्रारम्भ हिंसा सावधानीथी करवी. अने से प्रारम्भना उदाहरणमा अहिं पण कृप्यादि हिंसा गणावी छे.
अटले, प्रा बन्ने श्लोको अने अनी टीकाश्रो जोतां सेटलु स्पष्ट थाय छे के गृहस्थोने प्रारम्भ हिंसा याधक नथी, अमणे

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