Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 75
________________ [६७ ] सप्रमाण वनावे छे. परन्तु जेम जेम धर्ममा विकृति पेठी तेम तम लोको प्रांतरतपमांशी बाह्य तपना श्राडम्बरमा पड्या. आतर तप पधारे उच्च अने कठण हतुं, मनमां कोई प्रत्ये द्वेष न करवो, कोई प्रत्ये वैरभाव न राखवो, कोई ने प्राणहानि थाय अया संकल्प न करवो श्रेज खरे आंतर तप हतुं. अने म्वाभाविक रीते ज वाह्य कर्मनो मार्ग सहेलो देखायो, अने नवला लोको अने अनुसर्या. मात्र बाह्य जीवोनी हिंसा न करवी अज अहिंसा, वो प्रचार चाल्यो; अने जैनोनी अहिंसान विकृत अने संकुचित स्वरूप फेलावा लाग्यु. साधु आचर, मनोव्यापार शुद्ध रहे श्रेवी खरी अहिंसक प्रवृत्तिने बदले वहारथी जीवदयानो आडवर फेलातो चाल्यो. अने आजे एची विकृतदशा पहोंची गया छीग्रे के चामडानोमोटो वेपार करीग्रेछी, हीरा मोतीनो वेपार करीछीजेमां छीपने मारी नाखवीज पडे छे, मीलो चलाची छी, अने अवेपारमा कई बाध नथी आवतो, पण खेती करवामां जीवदयानो प्रश्न आडे आवे छे, हिंसान पाप पाडे आवे छे! जे व्यवसाय बगर समाजजीवन अशक्य छे ते व्यवसाय तरफ पापणे उपेक्षावृत्ति करी छीओ. खेडूतनी अगत्य ओछी थई जतां श्रने अना ग्रामजीवन तरफ दुर्लक्ष्य करवाथी प्राजे आपणु सामाजिक जीवन वे टल छिन्नविच्छिन्न थई गयु छे. ते तो हनी प्रत्यक्ष ज छे. शास्त्रमा कयु छ के खेती करवामां हिंसा के माटे खेती न करवी' अ भूलभरेली मान्यता प्राप

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