Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 31
________________ [ २७ ] हिंसा में जो निवृत्ति है, वह अहिंसा का शरीर है और उसमें पाया जाने वाला प्रवृत्ति का भाव उसकी आत्मा है। किसी प्राणी को नहीं सताना श्रहिंसा का बाह्य रूप है और इस निवृत्ति के साथ सर्वप्राणियों में बन्धुभाव होना, विश्वप्रेम का अंकुर उगना, करुणाभाव से हृदय द्रवित होना, जगत् के सुख के लिए कर्त्तव्यपरायण होना श्रादि प्रवृत्ति श्रहिंसा का आन्तरिक रूप है । इसके विना अहिंसा की भावना न उद्भूत हो सकती है, न जीवित रह सकती है । जैसे पक्षी एक पंख से आकाश में विचरण नहीं कर सकता, उसी प्रकार एकान्त निवृत्ति या एकान्त प्रवृत्ति से आत्मा ऊर्ध्वगामी नहीं हो सकता । अतएव यह कहा जा सकता है कि प्रवृत्ति और निवृत्ति, जैनाचार के दो पंख हैं । इन में से किसी भी एक के प्रभाव में अधःपतन ही संभव है । इसलिए शास्त्रों में कहा है: 1 सुहादो विवित्ती सुहे पवित्तीय जाण चारितम् । अर्थात् - अशुभ से निवृत्ति और शुभ में प्रवृत्ति को ही चरित्र समझना चाहिए ! प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय ही चरित्र का निर्माण करता है । जब हमें जीवनयापन करना ही है तो एकान्त निवृत्ति से काम नहीं चल सकता । प्रवृत्ति कुछ करनी ही होगी । ऐसी स्थिति में किस कार्य में प्रवृत्ति करनी चाहिए और किससे निवृत्त होना चाहिए, यह प्रश्न अपने आप उत्पन्न हो जाता

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