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असंयम आचरीने ते वर्ते तो जरुर' अनर्थ थाय. माटे अ जे कर्म करतो होय तो कर्म संयम पूर्वक श्राचारे, ओ उपदेश जैनशास्त्रोमां होय थे स्वाभाविक छे. जो कोई माणस मोटा पाया ऊपर अंगार कर्म - कोलसा बनाववा ई. - आचरे तो जरूर मोटी हिंसा था. अम करवामां अने केटलाय लाकडांश्री बालवा पडे, केटलाय वृक्षो कापवां पडे, अने से मोटा पाया ऊपर धंधो करतो होवाथी धेनु ध्यान पण न रहे के क्या लीलां लाकडां बली जाय छे, क्यां लाकडांओमां निरर्थक- बेदरकारी थी -जंतु मरी जाय छे; पण जो कोई गृहस्थ पोताना घर के परिवार माटे अंगारा बनावे तो थे बरावर ध्यान पण राखी शके अने अमां से जयगा राखी शके अंगार वगैर कोई ने चालवानुं तो नथीज, माटे गृहस्थनने अंगारा बनाववानी जरुर तो छे ज, मात्र मर्यादा बाहर जईने ये कर्म करे तो ग्रेना स्थूल प्राणातिपातविरमण व्रतनो भंग थाय ज, परन्तु जे पोताना माटे, यतना करीने अंगारा बनावे तो मां अ व्रतनो भंग न धाय. बीजो दाखलो-भांडीकम्मे - गाडा बनावीने भाडे फेरवे तो मे गाडांनी बनावटमां जरा पण ध्यान न राखी शके अने श्रेवा गाडां बने के जे खेचवामां बलदने अगबड थाय, वेसारूओ ने तकलीफ थाय, निरर्थक वधारे लाकडू चपराय, वली गाडां भाड़े आपती वखते थे ध्यान पण न रहे के गाडांने वापरनार माणस बलदने, सारी रीते राखशे वा बलदने मार मारशे श्रतिभार लादशे अने प्रमाणे स्थूल प्राणातिपात विरमण नो जरुर भंग थायज, अथी. उलडं,
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