Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla
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[५] चर्म, नख, वाल, दांत, इत्यादिना वेपार माटे प्राणीओनी हिंसा करे, अर्थात् जाणीवुझीने, अप्राणीओने हणवानासंकल्पथीज तेमनो वध करे ते संकल्प हिंसा, हल दंतालीथी खोदबुं, अर्थात् कृषि कर्म करनार जो संकल्प राखे के मारे कृषि कर्म करती वखने शंख, चन्दणकादि त्रस जीवनी हिंसा करवी, तो ते हिंसा वयं छे, श्रने गृहस्थी अनु जायजीव पञ्चक्खाण लेवु जोइ, पण जावज्जीव पञ्चक्खाण लेवुज श्रेवो नियम नथी; अने तेमांय वली ए जीवोने मारवानो संकल्प न होय परन्तु अ करतां जे .... जीवो मरी जाय तेने प्रारंभ हिंसा थाय अंनु पञ्चक्खाण न लेवू; कारण के खेतीनो प्रारंभ अवश्य छ ज. हवे पुछे छे के सूक्ष्मस्थावरजीवोनी केन्द्रियोनी संकल्प हिंसाथी त्याग केम सूचवता नथी ? तो कहे छे के गृहस्थीयो माटे अकेन्द्रियोनी संकल्प हिंसाथी दूर रहे, श्रे । अशक्य छे, कारण के सचित्त पृथिव्यादि द्रव्योना उपभोगथी गृहस्थो दूर न रही शके.
श्रा विचरणमा प्रापणे जोयु के गृहस्थोने स्थावर जीवोनी संकल्प हिंसानी पण छूट छे. स्थूलप्राणातिपात विरमणव्रतमा स्थावर जोबोनी हिंसानो बाध नथी. ग्रेटले स्थावर जीवोनी हिंसानो क्यांय बाघ नथी, वली सजीवोनी हिंसामा पण मात्र संकल्प हिमानोज बाध छे. अने अमां य खेती माटे केटली बधी छूट प्रापेली छे ते तो स्पष्ट ज छे.
हरिभद्र सृपिनो या फकरोज मात्र, गृहस्थोने खनीनी

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