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है कि खेती मूल प्राजीविका है। मूल आजीविका वह कह - लाती है, जिस पर अन्य अनेक आजीविकाएँ निर्भर हो । कपास. रुई, सूत, जूट, बुनाई, सिलाई, कपड़े के मिल, बजाजी का व्यवसाय, इस संबंध के तमाम आढ़त आदि के धंधे, तथा समस्त अनाज संबंधी व्यवसाय, हलवाई की दुकानें, होटल ढावा आदि-आदि कृषिकर्स पर अवलंबित हैं। अगर किसान खेती करना छोड़ दे तो दुनिया के अधिकांश व्यापारी चौपट हो जाएँ। इस दृष्टि से व्यापार का मूल भी खेती ही ठहरता है । ऐसी स्थिति में विभिन्न आजीविकाओं के साथ तुलना करने पर कृषि की उत्कृटता सिद्ध होती है । निःसंदेह कृषि जीवन है और कृषक जीवनदाता है। लोग राजा महाराजाश्र को दाता कहते हैं, मगर ईमानदारी से तो किसान ही अन्नदाता है ।
प्रवृत्ति और निवृत्ति का समन्वय ।
जनधर्म संबंधी श्राचारविषयक विभ्रम उत्पन्न होने के कारण पर एक निगाह डालना शायद श्रप्रासंगिक न होगा । मेरे विचार से याचारविषयक विभ्रम का प्रधान कारण यह है कि हम जैनधर्म को एकान्त निवृत्तिमय मान वैठे हैं । धर्मोपदेशक भी प्रायः इसी रूप में धर्म का स्वरूप प्रकट करते हैं । लेकिन एकान्त निवृत्ति क्या कहीं संभव है ? निवृत्ति, प्रवृत्ति के विना और प्रवृत्ति, निवृत्ति के विना असंभव है। अक्सर लोग समझते हैं, हिंसा निवृत्ति रूप है, लेकिन वास्तव में