Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 46
________________ 'परिभावेयचं' उहवेयत्वं' . [ ४२ ] परिघेतन्त्र' .......श्रज्जू चेयपढिबुद्धजीवी' तम्हा न हन्ता नवि घायए । श्राचारांग --१-१-४ | श्रने श्रा श्रहिंसानो श्राचार साधु पालवानो छे. स्थूल अने सूक्ष्म वने प्रकारनी श्रहिंसा श्राचरवानी श्रादर्श स्थिति श्रहिं वर्णवेली छे. छ जातनां जीवों वर्णन दशवैकालिक सूत्रना चौथा उद्देशकमां करेलुं छे. अने प्राणातिपात विरमण व्रत श्रमणने लेवानुं होय छे पढमे भन्ते महत्वए पारणाइवायाओ वेरमणं । सव्वं भन्ते पाणाइवायं पञ्चवक्खामि, से सुहुमं वा वायरं वा तसं वा थावरं वा नेव सयं पाणे अइवापजा, नेवन्नेहिं पाणे अहवायावज्जा, पाणे अहवायंते पि श्रन्ने न समणुजाणामि जावज्जीवाप तिविंह तिविहेणं मणेण वायाए कायेणं न करेमि न कारवेमि करेन्तं म अन्नं न समणुजाणामि, तस्स भन्ते पडिक्कमामि निन्दामि गरिहामि अप्पाणं वोसिरामि । पढमे भन्ते महत्वप उवडियोमि सव्वा पाणाइवायाओ वेरमण । था छे श्रमणनी आदर्श श्रहिंसानुं व्रत. श्रा अहिंसानुं स्वरूप श्राचरणमां मूकवानुं कठण लागे, परन्तु श्रादर्श हिंसा तरिके तो श्रा व्रतज होई शके. हवे खेती अहिंसामां श्रावे के केम ? ग्रे मुख्य प्रश्न उपस्थित थाय छे. प्रेम कहेवासां आवे छे के खेती करती

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