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वखते धरती फोड़वी पड़े अने केटलाक जीवोनो विनाश थाय तो पछी अहिंसा व्रतधारीने खेती करवी इष्ट के नहिं ? तेनी शास्त्रीय आलोचना माटे हुँनीचेना मुद्दा रजु करीश.
जैनधर्ममां सूक्ष्ममां सूक्ष्म जीवनी प्राणहानि न थाय अ विशे खूब विवेचन करवामां श्राव्यु छे अटले स्वाभाविक रीतेज, जेमा असंख्य जीवो हणाय छे-अवी खेतीने हिंसक प्रवृत्ति तो गणवामां आवेज. मात्र जैन विचारको नहि, परन्तु ब्राह्मण विचारको पण खेती हिंसक प्रवृत्ति होवाथी ब्राह्मणो माटे त्याज्य गणी हती-मनु लखे छ
वैश्यवृस्यापि जीवस्तु, ब्राह्मणः क्षत्रियोऽपि वा। हिंसाप्रायां पराधीनां, कृषि यत्नेन वर्जयेत् ।। ८३ श्र.१० कृषि साध्विति मन्यन्ते, सा चत्तिः सद्विहिता।
भूमि भूमिशयांश्चैव, हन्ति काप्ठमयोमुखम् ।। ८४ अ.१० अटले मनुस्मृति ने पण कहेवं पडे छे के अयोमुख काष्ठहल-भूमि ऊपर अने अन्दर रहेला जीवोनो नाश करे छे माटे कृषि त्यजवी.
प्राथी अम मालूम पडे छे के खेतीमा सम्पूर्ण अहिंसा सचवाती न होवाथी मात्र जैन विचारकोज नहिं परन्तु ब्राह्मण विचारकोशे पण नो विरोध को हते. हवे खेतीमाथती हिंसा बाधक छेके केम तेनी विशेष चर्चा माटे तत्त्वार्थसूत्रनी हिंसानी व्याख्या ल्यो
प्रमत्तगेगात् प्राण व्यपरोपणं हिंसा । अ. ६, सू ।