Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 50
________________ [४६] जीवहानि न रोकी शके तो श्रे हिंसा अने जरा पण बाधक थई पड़ती नथी. प्रा. हेमचन्द्र योगशास्त्रमा जणावे छ के___ एवं विरोपयोग वतश्च गच्छतो मुनेः कथंचित् प्राणीवधे ऽपि प्राणवघपापं न भवति । यदाह उच्चालियम्मि पाए इरियासमियस्स सङ्कमट्टाए । पावज्जेज कुलिङ्गी मरिज तं जोगमासज ।। न य तस्स तनिमित्तो वधो सुहुमो वि देसिश्रो समए । श्रणवनो उपयोगे सवभावेण सो जम्हा ।। तथा जितदु व मरद व जीवो अजदाचाररस निच्छश्रो हिंसा । पयदस्स पत्थि बंधो हिंसामित्त ण समिदस्स || प्र-१ श्लो.३६ । पाथी स्पष्ट मालूम पड़े है के हिंसा करवानी भावना श्रेज हिंसा छे. शुद्ध भावनाथी सावधान रही ने आचरेला कर्ममां कोई जीवहानि थाय ते जरा पण वाधित नथी. हवे खेती तरफ जोईये. खेडूत ज्यारे खेती करवा माटे सवारे हल जोडे हे त्यारे ना मनमां शी भावना होय हे? अना मनमांशुवी भावना होय छे के आजे हल जोडीने जमीनमा रहेला सेंकडेा जीवोनो संहार करूँ? वा अवी भावना होय छे के हुँ श्राजे या हलथी जमीन खेड़ीने अनाज पकवु ? जो जीव हणवानी इच्छा होय तो जरूर खेती वयं

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