Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 35
________________ [ ३१ ] दुर्गतिप्रपत्प्राणिशरणाद्धर्म उच्यते । संयमादिर्दश विधः सर्वज्ञोक्तो विमुक्तये ।। -~-योगशास्त्र, प्र. २ लो ११. प्रजानुं धारणपोपण थई शके अने जनसमूहने उत्पथे जतां अटकावे ते धर्म. संयमथी धर्म आचरणमां मुकाय. अने श्रे धर्म आचरे ते माणसज जीवनमुक्त दशामा रही शके. संसारमा थतां कर्मो अने बन्धनकर्ता थई पडता नथी. भारनीय संस्कृतिना उत्थानकालथी ते अाज सुधी दार्शनिको धर्म अने जीवननो सनातन सम्बन्ध प्रस्थापित को ज छे. जीवनशुद्धि अभारतीय विचारनुं तत्त्व छे. वुद्ध अने महावीरनां उदाहरण ल्यो-बन्ने रे 'प्रायणात् सर्वकामानां परित्यागो विशिप्यते' कथन अनुसार संसारसुखोनो त्याग करीने संमारना जीवाने श्रोछामा ओछो क्लेश थाय अर्बु जीवन गाल्यु. अकनो सिद्धांत कहेतोहता के संसारचक्र मूल वासना छे, बीजानो सिद्धांत कहेतो हतो के कर्म अ जीवने वन्धनकर्ता छे, वन्ने मात्र सिद्धांत निरूपण करीने बेसी न रह्या. वासना अने कर्मनो नाश करवा माटे अथाग परिश्रम लीधो-जीवनसमर्पण कर्यु. जीवनना श्रेक-अक अगमा रागद्वेषनो नाश करवा प्रयत्न कर्यो. राजा पण श्रादर्शधर्म प्राचरी शके छे. प्रेम प्रकना अनुयायी अशोके सिद्ध कर्यु, ज्यारे गृहस्थ पण आदर्श धर्म आचरी शके छे अम

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