Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 26
________________ [ २२ ] के लिए या अपने उपयोग के लिए कुठया प्रादि खोदने-खुदवाने से महान् पाप-इतना बड़ा पाप जिससे श्रावक का बत खडित हो जाय, लगता है ? कदापि नहीं । वास्तव में अपने पेट के लिए भूमि फोड़ने का धंधा करना ही कर्मादान है. कृषि करना कर्मादान में सम्मिलित नहीं है। जिस कार्य को करने से महान् पाप का बंध होता है. वह कार्य कर्मादान कहलाना है। इस अवसापिणी काल के तीसरे बारे में जब कल्पवृक्ष नष्ट हो गये और कर्मभूमि का प्रारम्भ हुआ तव तीर्थकर भगवान् ऋषभदेव ने उस समय की अज्ञान जनता को कृषिकर्म करने का उपदेश दिया था। श्रीसमन्तभद्राचार्य ने श्रादिनाथ की स्तुति करते हुए कहा है शशास कृप्यादिपु कर्मसु प्रजाः। --वृहत्स्वयंभूस्तोत्र । अगर कृषिकर्म पार्योचित कर्म न होता, महान् पाप का कारण होता तो भगवान उसका उपदेश क्यों देते? भगवान् ने उस समय की प्रजा को जुश्रा या सट्टा न सिखलाकर खेती की शिक्षा क्यों दी है ? तात्पर्य यह है कि कृपिकर्म न कमीदान है, न अनार्य कर्म है। जगह-जगह उसे वैश्यों का. कर्तव्य बतलाया गया है। श्रीसोमदेव सृरि लिखते हैंकृपिः पशुपालनं वणिज्या च वार्ता वैश्यानाम् । -नीतिवाक्यामृत । उत्तराध्ययन सूत्र में, 'वडा कम्मुणा होइ' इस सूत्रांश की टीका इस प्रकार की गई है-'कर्मणा-कृषिपशुपालनादिना

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