Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 25
________________ [ २१ ] अगार जलाने से ही कर्मादान का महापातक लग जाता है और श्रावक का व्रत दूषित हो जाता है तो फिर कर्मादानों का त्याग करने के लिए आजीवन संथारा लेने के सिवाय और क्या चारा है ? इस प्रकार श्रावक के व्रत ग्रहण करना अर्थात शीघ्र ही सौत को आमंत्रण देना ही ठहरता है। धर्म की यह कितनी ऊलजलूल व्याख्या है ! लेकिन कर्मादानों का वास्तविक स्वरूप यह नहीं है। श्रावक अपने लिए गाड़ी वनाए, खरीदे और स्वयं चलावे तो भी 'लाडीकम्ने कर्मादान नहीं लगता । कर्मादान का पाप उस हालत में लगता है जब कि गाड़ी बनाने का धंधा ही अख्तियार कर लिया जाय और उसी धंधे से आजीविका चलाई जाय । इसी प्रकार अपने भोजन आदि उपयोग के लिए 'अंगार जलाने का काम करने ले 'अगारकर्म' कर्मादान नहीं लगता । कोयला वना-बना कर बेचने का व्यापार करने से कर्मादान लगता है। यही वात कृपि के संबंध में है । खेती करना 'फोडीकम्ने कर्मादान नहीं है, वरन् हल चला-चला .कर खेत को सुपाक के लायक बना कर अजीविका करना-- हल चलाने का ही धंधा करना, और हल चलाकर उपार्जित किये हुए धन से निर्वाह करना काटान है। ___फोडीकम्मे' कर्मादान में तालाव खोदना, कुआ-चावड़ी खोदना आदि कार्य भी गिने जाते हैं। परन्तु हमारा सहज ज्ञान क्या यह स्वीकार करने के लिए तैयार है कि परोपकार

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