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[ १६ ] 'तयाणंतरं च णं खेत्तवन्थुविहिपरिमाणं करेइ- नन्नत्य पंचहि हलसऐहि नियत्तणसइएणं हलेणं अवसेसं खेत्तवत्थुविहिं पञ्चक्खामि ।
--उपासकदशांग, १ला अध्ययन । अर्थात्-तत्पश्चात् आनन्द श्रावक क्षेत्रवास्तुविधि का परिमाण करता है--सौ निवत्तन (एक तरह का ज़मीन का नाप) जोतने वाले एक हल के हिसाब से पाँच सौ हलों द्वारा जुतने योग्य भूमि के अतिरिक्त बाकी की भूमि का प्रत्याख्यान करता हूँ। __ इस प्रकार अन्यान्य व्रतों को ग्रहण करने के पश्चात् ही आनन्द प्रतिज्ञा करता है__ 'समणोवासएणं पण्णरसकम्मादाणा जाणियव्वाइ, न समायरियच्चाइ, तं जहा-इंगालकम्भे, वणकम्मे, साडिकम्मे, भाडिकम्मे, फोडिफम्मे' . . . . ..
अर्थात-श्रावक को पन्द्रह कीदान जानने योग्य हैं, पर आचरण करने योग्य नहीं हैं, वह इस प्रकार हैं-अगारकर्म, वनकर्म, शकटकर्म, भाटककर्म,स्फोटिकर्म आदि-श्रादि ।
उपासकदशांग सूत्र के यह दोनों उल्लेख साफ वतलाते हैं कि खेती करना स्फोटिकर्म कसीदान नहीं है, क्योंकि अानन्द श्रावक कर्मादान का त्याग करता हुआ भी खेती का त्याग नहीं करता। खेती करना अगर कर्मादान में गिना जाय तो यह प्रतिज्ञाएँ परस्पर विरोधी हो जाती हैं । हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि व्रत ग्रहण कराने वाले स्वयं भगवान हैं और ग्रहण करने वाला आदर्श श्रावक श्रानन्द है।