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[१८] का पालन ना कर ही केले सकते हैं ? इस प्रकार वे न इधर के रहते हैं, न उधर के। वे अनेक अवांछनीय प्रवृत्तियों में पड़ जाते हैं. इसका एक प्रधान कारण यही प्राचारविभ्रम है।
कृषि कर्मादान नहीं है
खती के संबंध में एक बात और विचारणीय है। वह यह है कि क्या खेती करना एन्द्रह कमीदानों में से फोडीकम्मे (स्फोटिकर्म ) के अन्तर्गत है? कुछ लोगों की धारणा है कि हल के द्वारा ज़मीन को फोड़ना फोडीव.म्मे' नामक कर्मादान है। कर्मादान,भोगापभोग परिमाण व्रत के अतिचार हैं.अतः बनधारी श्रावक अगर निरतिचार व्रतों का पालन करना चाहे, तो उसे कृपिकर्म नहीं करना चाहिए ।
वास्तव में यह विचार भी अभ्रान्त नहीं है। अगर खेती करना कर्मदान में सम्मिलित होता तो भगवान महावीर स्वामी के समक्ष बारह व्रत ग्रहण करने वाला प्रानन्द श्रावक पाँच सौ हलों से जाती जा सकने योग्य खेती की मर्यादा कैसे कर सकता था? क्या भगवान् उसे यह न समझाते कि व्रती श्रावक खेती नहीं कर सकता ! मगर अानन्द बारह व्रत ग्रहण करता है, फिर भी पाँच सी हलों से जुतने योग्य
खेती करने की छुट रखता है। इस बात का उपासकदशांग - सूत्र में स्पष्ट उल्लेख है । मूल पाठ यह है: