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[ १६ ] . श्वेताम्वर सम्प्रदाय के प्राचार्य श्री सिद्धसेन ने भी प्रवचनसारोद्धार की टीका में लिखा है
एषा पुनर्नवमी-प्यारम्भवर्जनप्रतिमा भवति, यस्यां नव मासान् यावत्पुत्रभ्रातृप्रभृतिपु न्यस्तसमस्तकुटुम्बादिकार्यभारतया धनधान्यादिपरिग्रहेप्वल्पाभिवङ्गतया च कर्मकरादिभिरपि प्रास्तां स्वयं, श्रारम्भान सपापव्यापारान् महतः कृप्यादीनिति भावः ।
-प्रवचनसारोद्धार । ग्राशय यह है कि प्रतिमाधारी श्रावक प्रारंभत्याग नामक आठवी प्रतिमा में स्वयं प्रारंभ करने का त्याग कर देता है। तत्पश्चात् प्रेष्यारंभ त्याग नामक नौवीं प्रतिमा धारण करता है। इस प्रतिमा में वह नौकरो-चाकरों से भी खेती का काम नहीं करता, क्योंकि वह अपने भाई या पुत्र प्रादि पर कुटुम्ब का भार छोड़ देता है और परिग्रह में उसकी आसक्ति कम होती है। यह प्रतिमा नौ मास की होती है।
आरंभ के अनेक काम है, फिर भी यह बात ध्यान देने योग्य है कि स्वामी समन्तभद्र और श्री सिद्धसेन सूरि-दोनों ने ही, बल्कि सागारधर्मामृत आदि अन्य ग्रन्थों के कर्ताओं ने भी, प्रारंभत्याग प्रतिमा का स्वरूप बतलाते हुए कृपि का उल्लेख किया है। समन्तभद्राचार्य सेवा और वाणिज्य के साथ कृषि का उल्लेख करते हैं। और सिद्धलेत सूरि सिर्फ कृषि का * निरूढसप्तनिष्टोऽझिवाताहत्वाकरोति न । न कारयति कृप्यादीनारम्भवित्तस्त्रिधा ।। -सागारधर्ममृत,