Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 12
________________ [+] हिंपा। स्थलानां वा प्रसानां जीवानां हिंसा स्थलहिंसा । स्थलग्रहणमुपलक्षणं, नेन निरपराधसङ्कल्पपूर्वकहिंसानामपि ग्रहणम् ।' योगशास्त्र, दि. प्र. श्लोक ६८ (टीका) अर्थात् जिस हिंसा को मिथ्यादृष्टि भी हिंसा समझते हैं. वह स्थलहिंसा कहलाती है। अथवा स्थल जीवों की अर्थात् त्रसजीवों की हिंसा स्थूल हिंसा कहलाती है। यहाँ स्थल का ग्रहण उपलनणमात्र है, अतएव निरपराध जीव की संकल्पपूर्वक की जाने वाली हिंसा भी समझ लेनी चाहिए। इससे आगे प्राचार्य ने और भी स्पष्ट किया है पगुकृष्ठिकुणित्वादि, दृष्ट्वा हिसाफलं सुधीः । निरागस्त्रसजन्तूनां हिंसां सहाल्पतस्त्यजेत ॥ अर्थात्-हिंसा करने वाले अगले जन्म में लँगड़े, कोढ़ी और कुबड़े ग्रादि होने हैं, हिंसा का यह अनिष्ट फल देखकर बुद्धिमान् श्रावक को निरपराध सजीवों की संकल्पी हिंसा का त्याग करना चाहिए । इस विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है किथावक के द्वारा होने वाली निम्नलिखित हिंसा से उसका अहिंसाणुव्रत खंडित नहीं होता (क) अपराधी त्रस जीवों की संकल्पी हिंसा से । (ख) निरपराध त्रस जीवों की आरंभजा हिंसा से। (ग) स्थावर जीवों की हिंसाले। अव हमें यह देखना है कि प्रेती करने में जो हिंसा होती

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