Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 11
________________ जीवन निर्वाह, भवननिर्माण, पशुपालन आदि कार्यो में जो हिंसा होती है, जिसमें प्राणियों को मारने का संकल्प नहीं होता, वह आरंभजा हिंसा कहलाती है। आरंभजा हिंसाभी दो प्रकार की है-निरर्थक और सार्थक । जो हिंसा विना किसी प्रयोजन-व्यर्थ की जाती है वह निरर्थक आरंभजा हिंसा है और जो प्रयोजनविशेष से की जाती है, वह सार्थक श्रारंभजा हिंसा है। साधारण श्रावक सिर्फ संकल्पजा हिंसा और निरर्थक आरंभजा हिंसा का त्यागी होता है। वह सार्थक आरम्भजा हिंला का त्यागी नहीं होता। अगर वह इस हिंसा का भी त्याग कर वैठे तो फिर वह गृहस्थी का कोई भी काम नहीं कर सकता। इस स्थिति में साधु और श्रावक के अहिंसाव्रत में कोई अन्तर ही नहीं रह जाएगा। __गृहस्थधर्म का प्रतिपादन करने वाले उपासकदशांग सूत्र में आनन्द श्रावक के व्रतग्रहण में यह पाठ पाया है-'थूलगं पाणाहवायं पञ्चक्खाइ-जावज्जीवाए दुविहं तिविहे न करेमि, न कारवेमि, मणला, वयसा, कायसा।' अर्थात् दो 'करण और तीन योग से अानन्द स्थूल हिंसा का त्याग करता है। स्थूल हिंसा किसे समझना चाहिए ? इस प्रश्न का स्पष्टी. करण श्रीहेमचन्द्राचार्य ने अपने योगशास्त्र में इस प्रकार किया है 'स्थूला-~मिथ्यादृष्टीनामपि हिसात्वेन प्रसिद्धा या हिसा सा स्पल

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