Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm Author(s): Shobhachad Bharilla Publisher: Shobhachad Bharilla View full book textPage 8
________________ किन्तु अन्न के विना नहीं । 'अन्नं वै प्राणाः यह एक ठाम सत्य है। ऐसी स्थिति में अन्न उपार्जन करने के लिए किया जाने वाला कर्म-कृपिकर्म-क्या अधर्म है ? जिसके बिना प्राणों की स्थिति नहीं रह सकती, जिसके अभाव में जीवन निर्वाह असंभव है, जिस पर मनुष्य समाज का अस्तित्व अवलंबित है, उस कार्य को एकान्त अधर्म कहना कहाँ तक उचित है ? जो लोग संतोप के साथ अन्नोपार्जन करके जगत की रक्षा कर रहे हैं, उन्हें अधार्मिक या पापी कहना क्या अतिसाहस और विचारहीनता का दयोतक नहीं है ? पहले कहा जा चुका है कि धर्म, जीवन का अमृत है। किन्तु जो धर्म जीवन का विरोधी है, जीवन का विष है, जीवन निर्वाह का निषेध करता है, वह वास्तविक धर्म नहीं हो सकता। मगर धर्म वास्तव में इतना अनुदार नहीं है। कृपि जैसे उपयोगी कार्य करने वालों को वह अपनी छत्रछाया से वंचित नहीं करता। एसा करने वाला धर्म स्वयं खतरे में पड़ जाएगा। अन्न के अभाव में, धर्म का आचरण करने वाले धर्मात्मा जीवित नहीं रह सकते और धर्मात्माग्री के अभाव में धर्म टिक नहीं सकता। प्राचार्य समन्तभन्द्र ने यथाथ ही कहा है-न धर्मो धार्मिक विना । एक ओर हम जैनधर्म की विशालता, व्यापकता और उदारता की प्रशंसा करते-करते नहीं थकते और यह दावा रत्नकरण्डक श्रावकाचार ।Page Navigation
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