Book Title: Krushi Karm aur Jain Dharm
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Shobhachad Bharilla

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Page 6
________________ धर्म की अमृतमयी गोद में बैठकर शांतिलाभ करने का अधिकार सव का समान है, चाहे कोई किसी भी जाति का, बर्ग का और वर्ण का हो और किसी भी प्रकार की ग्राजीविका करके जीवननिर्वाह करता हो। इतना ही नहीं, धर्म-साधना का जितना अधिकार मनुष्य को है. उतना ही पशु-पक्षी और कीट-पतङ्ग को भी है । अलवत्ता धर्मसाधना की मात्रा प्रत्येक प्राणी की अपनी-अपनी योग्यता पर निर्भर है। मध्यकाल में धर्म के संबंध में जो विविध भ्रांतिया उत्पन्न हो गई हैं, उन भ्रांतियों के कारण अनेकानेक सढ़ियाँ जन्मी हैं। ऐसी रूढ़ियाँ अब तक हमारे यहाँ प्रचुर परिमाण में विद्यमान हैं। इन रूढ़ियों और भ्रमणाओं के काले बादलों में, सूर्य की भाँति चमकता हुछा धर्म का असली स्वरूप छिप गया है। याज समाज का अधिकांश भाग धर्म की वास्तविकताले अनभिन्न है। धर्म संबंधी भ्रांतियों में एक बहुत बड़ी भ्रांति यह भी है है कि धर्म व्यक्तिगत उत्कर्ष का साधक है और सामाजिक व्यवस्थाओं के साथ उसका कोई लेनटेन नहीं है। निस्सन्देह यह धारणा भ्रमपूर्ण ही है, क्योंकि व्यक्ति, समाजसमुद्र का एक विन्दुमात्र है। कोई भी व्यक्ति समाज से सर्वथा निरपेक्ष रहकर जीवित नहीं रह सकता। प्रत्येक व्यक्ति के जीवन पर सामाजिक स्थिति का गहरा प्रभाव पड़े विना नहीं रहता। इसके अतिरिक्त अगर धर्म का संबंध सिर्फ व्यक्तिगत जीवन

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