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विकास द्वार रुद्ध स्थानकों में बैठे रहने के कारण, बाहर को दुनिया का कोई खयाल ही उत्पन्न नहीं हो सका था । उस चर्या में कभी किसी प्रकार के अखबार को पढ़ना भी, विकथा के पाठ के जैसा निषिद्ध, माना जाता था। ऐसी स्थिति में मन का कुठित रहना स्वाभाविक था। परन्तु संवेगमार्ग की इस मुनिचर्या का क्षेत्र बहुत उदार और ज्ञानोपार्जन की दृष्टि से वैविध्यपूर्ण था । इसलिये ज्यों-ज्यों मेरा अध्ययन बढ़ता गया त्यों-त्यों चिन्तन मनन का क्षेत्र भी विशाल होता गया । जैन अजैन अनेक विद्वानों व विचारकों के सम्पर्क में आने का मार्ग खुला हुआ था। सामयिक पत्र-पत्रिकाएँ तथा विविध विचारों के अखबारों का पढ़ना तथा देश और समाज की गतिविधियाँ जानने का कर्तव्य सा बना रहता था।
इस प्रकार निरन्तर विकसित होती जाने वाली मनोवृत्ति का, विकास क्षेत्र भी बहुत व्यापक होता गया। परिणामस्वरूप, मैं जिस चर्या, जिस सामाजिक वातावरण में रह रहा था, वह मेरे मन को अन्दर ही अन्दर उद्विग्न कर रहा हो ऐसा आभास मुझे होने लगा। ऐसा मनोमन्थन कुछ वर्षों तक चलता रहा। इस बीच अनेक ऐसे विद्वान् मित्रों से भी मिलना होता रहा जो साहित्य, शिक्षा, कला, लेखन, वक्तृत्व
आदि गुणों के प्रसिद्ध धनी थे। उनके साथ मेरा घनिष्ठ सम्बन्ध बढ़ता गया और मेरे मन में विविध प्रकार के तरंग उछलने लगे। मेरी जीवन कथा का यह समय बहुत ही विचार और मन्थनपूर्ण है । मैं अपने अन्तरंग के आन्दोलन को मूर्तरूप देने की दृष्टि से विविध प्रकार के साहित्यिक, शैक्ष
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