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गया। इस छोटे से क्षुद्र जीवन की, एक ही भव में अनेक नाम और अनेक रूप, वेश धारण करने जैसी यह कथा, स्वयं अपने प्रापको विस्मित करती रहती है । वास्तव में जिनविजय नाम वाली कथा का चित्रण ही इस कहानी का मुख्य लक्ष्याँश है, परन्तु वह तो अभी भावि के गर्भ में प्रसुप्त है । उसका जन्म होगा या नहीं यह विधि के विधान के हाथ की बात है।
पाठकों को कुछ कल्पना कराने की दृष्टि से इस कहानी के आगे के भाग में जो मुख्य प्रसंग वर्णन योग्य हैं, उनका दिग्दर्शन इस प्रकार है।
वि० सं० १९६५ में मैंने उक्त प्रकार से संवेगमार्ग की दीक्षा ग्रहण की। १ वर्ष बाद मेरा गुजरात की ओर तीर्थ यात्रा निमित्त प्रवास हुमा । बाद के वर्षों में गुजरात के बड़ौदा, सूरत, पाटण आदि नगरों में ठहरना हुआ । विद्याध्ययन और साहित्यिक प्रवृत्तियों में यथा-योग्य कार्य करने का उत्साह बढ़ता गया । पाटण, सूरत, बड़ौदा के प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ भण्डारों के अवलोकन करने और उनमें छिपे हुये अनेकानेक महत्व के ग्रन्थों का निरीक्षण करने का यथेष्ट अवसर मिला । अनेक विद्वानों के सम्पर्क में आने का सुयोग भी मिला । संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश, प्राचीन गुजराती, राजस्थानी
आदि भाषाओं में लिखित अज्ञात, अप्राप्त, अलभ्य ऐसे अनेक ग्रन्थों का संशोधन, संपादन और प्रकाशन करने के अभीष्ट मनोरथ भी बढ़ने लगे और तद्नुकूल कार्य भी होने लगे । इस प्रकार प्रायः सन् १९०६ सें लेकर १६१६ तक के १० वर्ष, उक्त संवेगी मार्ग की साधुचर्या का यथा योग्य पालन
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