Book Title: Jinvijay Jivan Katha
Author(s): Jinvijay
Publisher: Mahatma Gandhi Smruti Mandir Bhilwada

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Page 11
________________ समय का मेरा जीवनयापन बहुत कठिन और तपस्या पूर्ण था । मैंने उस जीवन में ऐसी कठिन तपश्चर्या करने का पूर्णतया पालन करके अपने को विशिष्ट संयमी व्यक्ति मानने का अभाव भी धारण किया । परन्तु मन के विचारों ने करवट बदलते ही एक ही रात में वह सारो तपश्चर्या का श्रीफल उज्जैन की शिप्रा नदी में बहा दिया और मैं एक असहाय, निःसंग, एकाकी, प्रारणी की तरह लक्ष्यहीन, विचारमूढ़ और किंकर्तव्यभ्रान्त होकर किसी अज्ञात मार्ग की शोध में चल पड़ा । चलते-चलते फिर कुछ थक गया तो, संवत् १९६५ के मार्गशीर्ष की शुक्ला ७ मी के दिन, राजस्थान के पाली गाँव की निकट पहाड़ी पर स्थित जैन मन्दिर के भव्य मण्डप में, मैंने जैन श्वेताम्बर मूर्तिपूजक सम्प्रदाय के संवेगीमार्गानुयायी एक वृद्ध सरल और संयमी मुनि पन्यास श्री सुन्दर विजयजी गरि के पास, संवेगीमत की दीक्षा ग्रहण करली । उस दिन से मेरा यह प्रचलित एवं प्रसिद्ध नूतन नाम जिन विजय स्थापित हुआ । उस दिन के बाद यह प्रारणधारी शरीर जिनविजय के नाम से प्रसिद्धि पाता रहा है। पिता का दिया नाम किशनसिंह और माता के मुँह से पुकारा जाने वाला नाम रिणमल सदा के लिये विसर्जित हो गया । भैरवी दीक्षा सूचक किशन भैरव नाम भी स्मृति से विलुप्त हो गया । यतिवेश वाला तथा साधुवेश वाला किशन लाल भी किन्हीं कागजों में शायद दबा पड़ा हो तो अलग बात है, परन्तु व्यवहार से विलुप्त हो ४ ] Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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