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यपि जाणइ सोचा, जंसेयं तं समायरे ११ ज्ञानक्रियाभ्याम् मोक्षः, सच सर्वकर्मक्षयरूपोमोक्षः सर्वकर्मक्षयश्च सम्यग्ज्ञानपूर्विकयाक्रिययाविना न भवति, तत्सम्यग्ज्ञानं क्रमायातसुगुरुसमीपे अभ्यसनाद भवति इति अध्यवस्यता तेन कथितं, आयो प्रति, हे भगवति मां सुगुरुसमीपे शीघ्रं प्रेषयतु इत्यादि अर्थः पहिलाज्ञानपीछेक्रिया संबररूप. होवे, इसतरे सर्वमुनिरहे, पड्द्रव्यके ज्ञानविना मुनि नहोवे, द्रव्यसें मस्तक मुंडाकर घरवासका त्यागकर जंगलमेरहेणेसें मुनि न होवे नाणेण मुणि होइ, न हु रण्णवासेणं इसवचनसें सम्यग्ज्ञानसेंहिमुनिहोते हैं' केव. लवेषमात्रसें मुनि नहिं होवेहै, किन्तुयथार्थसत्यासत्यबोधजनकसम्यग्ज्ञानसेंहि सर्वेष्टसिद्धि होवेहै' इसवास्तेकहाहे कि सम्यग्ज्ञानसहितसम्यक् क्रियासेंहिमोक्षहोवेहै अर्थात् सर्वकर्मोसे रहित जीवहोवेहै और वह मोझ सर्वकर्मक्षयरूपहै, सर्वकर्मका क्षय तो सम्यग्ज्ञानसहितक्रियाविना प्रायें नहिं संभवेहै' वहसम्यग्ज्ञानअविछिन्नपरंपरासेंआयेहूवे, सुगुरुकेपास अभ्यास करणेसें होवे, एसाविचार करतेहूवे कुमरनें साध्वीजीसे कहाकि हे भगवति मुजकों शुद्धप्ररूपकसुगुरुकेपास विद्याभ्यासकरनेके लिये जलदि भेजो, साध्वीने समजाकि यह कोइ विनयसहित पूर्वभवाराधितज्ञानचरणशीलजीवहै, इसलिये इसकेयोग्यसुगुरुगछमें कोण है, यह उपयोग देके इसके योग्य श्रीसमुद्रसोमजीके सुशिष्य इसकुमारकेयोग्यसुगुरुहै, उनोंकेपासहि विद्याअभ्यासकेलिये भेजना ठीक है, यह विचारके और माताको पूछके, अछे मूहुर्तमें श्रीवीकानेररवाने करा, क्रमसें चलतेहूवे, चैत्रसुद् ३ के रोज सुगुरु के पास हाजिर हूवा, और श्रेष्ठमुहूर्तमें विद्याभ्यास करना शुरुकरा, धार्मिक
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