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साहेबजी - चलो, आपकी यह बात तो समझ में आ गई। पर आप मुझे यह बताईए कि होटल में तो प्रतिदिन गरमा-गरम ताज़ी रसोई बनती होगी, तो फिर आप स्वयं घर के खाने का आग्रह क्यों रखते है ? मेज़र - आपको होटल की क्या बात कहूँ। कुछ कहने जैसा नहीं है। लेकिन जब आपने पूछ ही लिया है तो आपकी बात मैं टाल भी नहीं सकता। तो सुनिए... हम तो धंधा लेकर बैठे हैं। होटल हमारे लिए पैसे कमाने का साधन है। इसलिए हम ऐसी चीजें लाते हैं, जो सस्ती हो । जैसे कि:
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1. मार्केट से अंत में बची हुई साग-सब्जी ले आते हैं, चाहे वह सड़ी हुई हो या जीव जंतु वाली हो। नौकर लोग उसे सस्ते में खरीद लाते हैं। जैसे मार्केट से लेकर आते हैं वैसे ही सीधा उन्हें काट कर सब्जी तैयार कर दी जाती है। कौन परवाह करे उन छोटे-छोटे जीव-जंतु की ? किसके पास है इतना समय कि बैठकर उसे यापूर्वक सुधारें।
2. इसी प्रकार बाज़ार से हल्का धान्य (सड़ा-गला) खरीदकर साफ किए बिना ही सीधा आटा बना देते हैं। यदि हम नौकरों के पास छान बिन कराए तो होटल में रसोई कौन बनाए ? एवं मजदूरी लगे वह अलग। 3. होटल में रसोई घर under ground होता है। वहाँ अंधेरा होने से लाईट में ही रसोई आदि काम करना पड़ता है। होटल में चौबीसों घंटे ग्राहक होने के कारण नौकरों को सतत रसोई बनाने का काम रहता है। और रसोई-घर के पास में ही लेटरिन - बाथरुम होता है। रसोई बनाते-बनाते यदि बीच में लघु शंका या बड़ी शंका हो जाए तो बीच में ही निपटाकर आ जाते हैं। हाथ धोने का तो कोई काम ही नहीं । रसोई घर की गर्मी एवं सतत रसोई का काम करने के कारण शरीर पसीने से लथपथ हो जाता है। शरीर का पसीना, बीड़ी-सिगरेट का धुआँ एवं अंधेरे में मच्छर-मक्खी आदि भोजन में गिरकर मानो मसाले का काम करते हो ।
4. ग्राहक ज्यादा होने के कारण आटा भी हाथ से न गूंथकर पैरों से ही गूंथते हैं।
5. हर चीज़ में पानी अलगन ही उपयोग किया जाता है। यहाँ तक की पीने का पानी भी अलगन ही होता है। 6. इतना ही नहीं साहेबजी! इटली-वडे आदि का घोल बच भी जाए तो उसे दूसरे दिन काम में लिया जाता है। कभी-कभी तो 4-5 दिन तक उसका उपयोग होता रहता है। साग-सब्जी आदि बच भी जाए तो दूसरे दिन गरम करके उपयोग में ले लेते हैं। एक भी चीज़ बाहर फेंकने का तो सवाल ही नहीं उठता। और एक भी बर्तन हुए नहीं होते।
7. यदि दूध आदि किसी वस्तु में चूहा, कोकरोच या छिपकली गिर जाए तो नौकर उसे चिमटे से पकड़कर
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