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जब जीव चरमावर्त में प्रवेश करता है, तब सहजमल कुछ कम होता है। उसके कारण जीव को धर्म में कुछ रुचि पैदा होती है। फिर भी सहजमल की उपस्थिति में जीव का मोक्ष नहीं हो पाता ।
(III) अर्ध चरमावर्त जीव के लक्षण
(1) इस काल में जीव को संसार बिल्कुल पसंद नहीं आता ।
(2) मोक्ष में जाने की उत्कृष्ट इच्छा होती है
(3) देव-गुरु- धर्म बहुत अच्छे लगते हैं ।
इस काल में जीव का पुरुषार्थ इतना प्रबल हो जाता है कि अर्ध पुद्गल परावर्तन में वह मोक्ष में जाने योग्य बन जाता है ।
अर्धपुद्गल परावर्तन काल में जीव का विकास
किसी व्यक्ति ने एक तुंबी पर मिट्टी एवं तेल का लेप लगाकर उसे 3 दिन तक धूप में सुकाया । सूक जाने पर पुन: इसी प्रकार लेप लगाकर धूप में सुकाया । इस प्रकार आठ बार तुंबी पर लेप किया। फिर उस तुंबी को एक गहरे तालाब में डाल दी। गजब हो गया..... . तैरने का स्वभाव होने पर भी वह तुंबी तालाब के पानी में डूब गई। बाद में थोड़े दिन में मिट्टी के निकल जाने पर तुंबी अपने मूलभूत तैरने के स्वभाव में आ
गई ।
यह बात आत्मा पर भी घटती है। अपनी आत्मा और समस्त जीव तुंबी के समान हैं। अपनी आत्मा में राग-द्वेष भाव रुप तेल की स्निग्धता (सहजमल) हैं। इसके कारण आत्मा में आठ कर्म रुपी रज- कण चिपकते हैं। अर्धचरमावर्त काल में आत्मा अपने प्रबल पुरुषार्थ से कर्म मल को दूर कर देती है। तब वह लेप रहित होकर तुंबी के समान ऊर्ध्वगमन (मोक्षगमन) करती है।
लेकिन आत्मा का विकास प्रारंभ होने पर भी हमेशा के लिए विकास ही होता रहे ऐसा कोई नियम नहीं है। परन्तु कभी-कभी विकास के बदले आत्मा का पतन भी हो सकता है। आत्मा के विकास एवं पतन को साँप-सीढ़ि के खेल की उपमा दी जा सकती हैं। अत: अधोगति के अंतिम तल से निकली हुई आत्मा पुन: उसी तल पर जा सकती है। अर्थात् अर्धचरमावर्त काल में भी अपनी आत्मा वापिस निगोद में जा सकती है । इसलिए आत्मा को अपने दुश्मन से सदैव सावधान रहना चाहिए । आत्मा के दो खतरनाक दुश्मन है - (1) कर्म (2) कुसंस्कार
1. कर्म - आत्मा का सबसे खतरनाक शत्रु कर्म है। जड़ ऐसे कर्म की ताकत तो देखों कि इसने अनंत शक्तिशाली जीव को अपनी ताकत से संसार में जकड़ रखा है। अनंत आनंदमय आत्मा को इस कर्म
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