________________
ने दर-दर का भिखारी बना दिया है। इसी कर्म ने संसार में रहने वाले जीवों को पूर्ण सुखी नहीं होने दिया । कर्मों के कारण ही संसार में समान, सतत और संपूर्ण सुख नहीं है।
(1) संसार में समान सुख नहीं है - जिस प्रकार सभी आम का स्वाद एक समान नहीं होता। हाथ की पांचों अंगुलियाँ समान नहीं होती। वैसे ही संसारी जीवों का सुख भी समान नहीं होता। क्योंकि सभी कर्म का बंध एवं उदय अलग-अलग होता है। शायद एक डिज़ाईन वाला मकान मिल सकता है, कपड़ा मिल सकता, बर्तन मिल सकते हैं। क्यों कि उनके पीछे कर्म नहीं है। लेकिन एक समान सुख वाले जीव कभी भी नहीं मिल सकते। अत: अपने से अधिक सुख किसी को मिला हो तो उससे ईर्ष्या नहीं करनी और दूसरों से अपना सुख अधिक हो तो अहंकार एवं दूसरों का तिरस्कार नहीं करना। क्योंकि ये सब अपनेअपने पुण्य-पाप का खेल है।
यदि अपने पात्र में पानी कम आया हो तो सागर को दोष दिए बिना अपने पात्र को ही बदलना पड़ता है । उसी प्रकार सुख कम हो तो पुण्य कार्य बढ़ाने का प्रयत्न करना चाहिए । ईर्ष्या करने से कुछ हाथ लगने वाला नहीं है ।
(2) संसार में सतत सुख नहीं है- सभी संसारी जीवों की आने वाली घड़ी दुःख से भरी हुई है। यानि आने वाली घड़ी के लिए सुख की आशा रख सकते है, लेकिन सुख की आस्था नहीं रख सकते । इसलिए आने वाले कल की जो चिंता करते है वे 'संसारी', आने वाले भव की जो चिंता करते है वे 'धर्मी'
50,000 वर्ष बाद के सूर्योदय का समय निश्चित करना सरल है। लेकिन इस दुनिया के किसी भी व्यक्ति की मृत्यु का समय निश्चित करना वैज्ञानिकों के लिए भी मुशकिल है ।
हमें जो मिला है वह थोड़े समय के लिए एवं थोड़ा मिला हुआ है। थोड़े समय के लिए मिला इसलिए आसक्ति करने जैसी नहीं है और थोड़ा मिला इसलिए अहंकार करने जैसा नहीं है। एक दिन सब छोड़ना पड़ेगा । " जिसे छोड़कर जाना पड़े वह संसारी, जो सब त्याग कर जाए वह साधक "
(3) संसार में संपूर्ण सुख नहीं है- अपने पास एकाध सुख की मोनोपॉली हो सकती है। संपूर्ण सुख की मोनोपॉली तो हो ही नहीं सकती ।
"मैं सारी दुनिया ढूढ़ फिरा, सुखिया मिला न कोई, जिसके आगे मैं गया, वह पहले से पड़ी रोई । मैंने मेरा एक दु:ख कहा, उसने कहे बीस, मैं मेरा एक दुःख सह न सका, कहा रखूँ दूसरे बीस ॥"
076