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- जो नये को पुराना करता है।
3. पुण्य - जीव जब शुभ क्रियाएँ करता है, तब वह अच्छे कर्मों का बंध करता है। उसे पुण्य कहते है। इसके उदय से जीव को सुख सुविधाएँ एवं धर्म करने की सामग्री मिलती है ।
काल
4. पाप - अशुभ क्रियाओं से एवं पाप की क्रिया से जीव बुरे कर्मों का बंध करता है । उसे पाप कहते है। इसके उदय से जीव को संसार में बहुत दुःख सहन करना पड़ता है । विपरीत परिस्थितियों का निर्माण होता है।
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5. आश्रव - मन, वचन एवं काया के शुभ एवं अशुभ योग आश्रव कहलाते हैं। इससे आत्मा कर्म आते हैं । जैसे हिंसा - झूठ - चोरी - अब्रह्म सेवन एवं परिग्रह ये पाँच बड़े आश्रव हैं ।
6. संवर - ऐसी धर्म की प्रवृत्ति एवं आत्मा के निर्मल अध्यवसाय (परिणाम) की धारा, जिससे कर्मों का आना बंध हो जाता हैं। जैसे पाँच समिति, तीन गुप्ति का पालन, 12 भावनाओं का भावन, 22 परिषहों को सहना आदि ।
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7. निर्जरा - जिससे बांधे हुए पुराने कर्म भी नाश हो जाते हैं। जैसे 12 प्रकार के बाह्य अभ्यंतर तप । 8. बंध - कर्मों का आत्मा के साथ एकमेक हो जाना बंध है।
इसके चार भेद है - 1. प्रकृति बंध 2. स्थिति बंध 3. रस बंध 4. प्रदेश बंध
9. मोक्ष - सर्व कर्मों के बंधनों से छुटकारा पाना ही मोक्ष है ।
प्र.: नवतत्त्वों को समझकर क्या करना चाहिए?
उ.: नवतत्त्वों को समझकर उसमें से छोड़ने योग्य को छोड़ना, ग्रहण करने योग्य को ग्रहण करना एवं जानने योग्य को जानना । वे इस प्रकार हैं -
हेय=छोड़ने योग्य तत्त्व=पाप, आश्रव, बंध तथा पापानुबंधी पुण्य ये सब छोड़ने जैसे है। इनसे
अपनी आत्मा मलिन बनती है।
उपादेय = ग्रहण करने योग्य तत्त्व =
= पुण्यानुबंधी पुण्य, संवर, निर्जरा एवं मोक्ष ये जीवन में अपनाने
जैसे तत्त्व है। इससे आत्मा धर्म द्वारा मोक्ष को पाती है।
ज्ञेय=जानने योग्य तत्त्व - जीव, अजीव, ये दोनों जानने योग्य है। इससे जीव का महत्त्व समझ में
आता है एवं अजीव का ममत्व टूटता है।
नाँव के दृष्टांत से नवतत्त्व की समझ
समुद्र में एक नाँव है। वह एक जड़ वस्तु है। उसे अजीव कहा जाता है। अजीव वस्तु को चलाने के
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