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मोक्ष में गये हुए परमात्मा के स्वरूप एवं आत्मरमणता का चिंतन करें। इसमें अरिहंत वंदनावली की 44 वीं गाथा का अर्थ विचार सकते हैं। अक्षत, नैवेद्य, फल पूजा करते समय इस अवस्था का चिंतन करें।
न्हवण जल लगाने की विधि * दो अंगुली से थोड़ा सा जल लेना। * पवित्रतम परमात्मा के शरीर का स्पर्श होने से पवित्र बना हुआ यह न्हवण जल
1. मेरी आँखों के विकारों को दूर करें। 2. जिन वाणी श्रवण में रुचि उत्पन्न करें। 3. मेरे मस्तक पर सदा जिनाज्ञा रहे। 4. मेरे हृदय में सदा भगवान का वास हो।
ऐसी भावना से न्हवण जल आँख, कान, मस्तक एवं हृदय पर लगाएँ। * न्हवण जल ज़मीन पर न गिरे इसका विशेष ध्यान रखें। * न्हवण जल एवं पूजा करने के बाद हाथ अवश्य धोयें क्योंकि हथेली, नाखून आदि में केसर का अंश रहने पर यदि वह भोजन द्वारा मुँह अथवा पेट में चला जाए तो देवद्रव्य भक्षण का महापाप लगता है।
मंदिर से बाहर निकलने की विधि * प्रभुजी के सन्मुख दृष्टि रखकर, प्रभु को पीठ न लगे इस तरह से बाहर निकलें। * आनंद की अनुभूति को प्रगट करने हेतु घंट बजायें।
ओटले पर बैठने की विधि * प्रभुजी को अथवा मंदिर को पीठ न लगे इस प्रकार से बैठे। * रास्ते पर अथवा सीढ़ियों पर न बैठकर एक तरफ बैठे। * हृदय में प्रभुजी का ध्यान करते हुए तीन नवकार गिनें।
प्रश्नोत्तरी प्र.: प्रभु की पूजा कब और कैसे करनी चाहिए ? उसका फल क्या है ? उ.: प्रभु की त्रिकाल पूजा करनी चाहिए।
1. प्रात: सूर्योदय के बाद, वासक्षेप पूजा से पूरे दिन के दुःख दूर होते हैं। 2. मध्यान्ह में अष्टप्रकारी पूजा करने से पूरे जन्म के पापों का नाश होता है। 3. संध्या में आरती, मंगल दीपक करने से सात भवों के पाप नाश होते हैं।