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त्रिदिशिवर्नन त्रिक प्रभु जिस दिशा में बिराजमान हो उसके अलावा तीनों दिशाओं में देखने का त्याग करें। अर्थात् चैत्यवंदन करते समय ध्यान पूर्णतया भगवान में ही रहे। आस-पास में कौन क्या कर रहा है? कैसे वस्त्र पहने है ? कौन आ रहा है ? कौन जा रहा है ? आदि किसी पर भी ध्यान न दें।
वर्णादि (आतम्बब) त्रिक :सूत्रालम्बन - चैत्यवंदन के सूत्रों की पद-संपदा आदि का ध्यान रखते हुए शुद्ध एवं स्पष्ट उच्चार करें। अर्थालम्बन - सूत्र बोलते समय अर्थ का चिंतन करें। प्रतिमालम्बन - चैत्यवंदन करते समय प्रतिमा पर ध्यान रखें।
- मुद्रा त्रिक योग मुद्रा : दोनों हाथ कोणी तक मिलाकर पेट को स्पर्श करें एवं हथेली की अँगुलियाँ परस्पर (दोनों हाथ की) एक दूसरे में रखकर हाथ जोड़ना। चैत्यवंदन, नमुत्थुणं आदि इस मुद्रा में बोले जाते हैं। ___ जिन मुद्राः दो पैरों के बीच आगे से चार अँगुल एवं पीछे चार अँगुल में कुछ कम अंतर रखकर, खड़े रहकर हाथ को सीधा लम्बाने पर यह मुद्रा होती है । दृष्टि प्रतिमा या नासाग्र पर स्थिर करें । इस मुद्रा में काउस्सग्ग करें।
मुक्तासुक्ति मुद्राः छीप के आकार में दोनों हथेली जोड़कर मस्तक को लगाएँ। जावंति, जावंत एवं आधा जयवीयराय सूत्र इस मुद्रा में बोला जाता है।
प्रणिधान त्रिक प्रत्येक क्रिया मन-वचन-काया की एकाग्रता पूर्वक करनी अथवा जावंति, जावंत, जयवीयराय इन तीन सूत्रों को भी प्रणिधान त्रिक कहते हैं।
दैत्यवंदन में ध्यान रखने योग्य कुछ सावधानियाँ चैत्यवंदन भगवान का किया जाता है स्वस्तिक का नहीं अत: पहले स्वस्तिक आदि द्रव्य पूजा पूरी करने के बाद निसीहि द्वारा द्रव्य पूजा का त्याग कर भाव पूजा (चैत्यवंदन) की जाती है। उसी समय कोई आपका स्वस्तिक मिटा भी दे तो कोई बाधा नहीं है।
चैत्यवंदन करते समय पच्चक्खाण नहीं लेना और ना ही किसी को देना, चैत्यवंदन पूर्ण होने के बाद पच्चक्खाण लें। चैत्यवंदन, काउस्सग्ग एवं पच्चक्खाण करने के बाद एक खमासमणा देकर ज़मीन पर बायाँ हाथ रखकर विधि करने में कुछ अविधि हुई हो तो उसका मिच्छामि दुक्कड़म् दें।