Book Title: Jainism Course Part 01
Author(s): Maniprabhashreeji
Publisher: Adinath Rajendra Jain Shwetambara Pedhi

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Page 209
________________ 'तिण्णाणं, 'तारयाणं, 'अज्ञान सागर से तिरे हुए, 'तिरानेवाले, 'बुद्धाणं, बोहयाणं, 'पूर्णबोध प्राप्त किए हुए, प्राप्त कराने वाले, 'मुत्ताणं, मोअगाणं ।।8।। 'स्वयं मुक्त हुए, “मुक्त करानेवाले ।।8।। 'सव्वण्णूणं, सव्वदरिसीणं 'सर्वज्ञ सर्वदर्शी, 'सिव मयल मरूअ मणंत मक्खय शिव अचल अरोग अनंत 'अक्षय 'मव्वाबाह मपुणरावित्ति पीड़ा रहित अपुनरावृत्ति (जहाँ से पुन: आने का नहीं होता है।) "सिद्धिगइ"नामधेयं ठाणं "संपत्ताणं, ऐसे "सिद्धिगति ''नाम के "स्थान को "प्राप्त किये हुए, "नमो "जिणाणं "जिअ "भयाणं ।।७।। "भयों के "विजेता "जिनेश्वर भगवंतों को "मैं नमस्कार करता हूँ।।9।। जे अ अईया सिद्धा, 'जो (तीर्थंकरदेव) अतीत काल में सिद्ध हुए, व 'जे अभविस्संति णागएकाले; 'जो भविष्य काल में होंगे, 'संपइअ वट्टमाणा, एवं (जो) 'वर्तमान में विद्यमान हैं, 'सव्वे "तिविहेण"वंदामि ।।10। उन सब को "मन-वचन-काया से "वंदन करता हूँ।।10।। 4. जाति सूत्र भावार्थ - इस सूत्र के द्वारा तीन लोक के सभी जिनमंदिर एवं जिन प्रतिमाओं को वंदना की जाती है। 'जावंति चेइयाइं,'उड्ढे अ अहे अतिरिअलोएअ; 'ऊर्ध्व, अधो एवं ति लोक में जितने 'सव्वाइं ताई "वंदे, इह "संतो तत्थ संताई ।।1।। चैत्य हैं वहाँ रहे हुए उन सब को यहाँ "रहा हुआ''मैं वंदन करता हूँ। 5. जावंत के वि साह सूत्र मदर भावार्थ- इस सूत्र के द्वारा सभी साधु भगवंतों को वंदना की जाती है। 'जावंत के वि साहू, 'जितने भी साधु 'भरहेरवय महाविदेहे अ; भरत-ऐरावत-'महाविदेह क्षेत्र में हैं 'सव्वेसिंतेसिं "पणओ, जो त्रिदंड (मन-वचन-काया की अशुभ प्रवृत्ति) से अटके हुए है। 'तिविहेण तिदंड-विरयाणं. उन सबको त्रिविध(करण-करावण-अनुमोदन) से "मैं वंदन करता हूँ।

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