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गौतम स्वामी सूर्य किरण का आलंबन लेकर उस महागिरि पर चढ़ गये और पल भर में देव की भाँति वहाँ से अदृश्य हो गये। तत्पश्चात् वे परस्पर कहने लगे - ‘इस महर्षि के पास कोई महाशक्ति है, यदि वे यहाँ वापस आयेंगे तो हम उनके शिष्य बनेंगे।' ऐसा निश्चय करके वे तापस एक ध्यान से उनके लौटने की राह देखने लगे।
अष्टापद पर्वत पर चौबीस तीर्थंकरों के अनुपम बिंबों को देखकर गौतम स्वामी ने भाव से वंदन किया और 'जगचिन्तामणि' की रचना की। तत्पश्चात् चैत्य में से निकलकर गौतम गणधर एक बड़े अशोकवृक्ष के नीचे बैठे। वहाँ अनेक सुर-असुर और विद्याधरों ने उनको वंदन किया। गौतम गणधर ने उनके योग्य देशना दी। इस देशना में गौतम स्वामी ने कहे हुए पुंडरीक-कंडरीक का अध्ययन समीप में बैठे तिर्यग् जुंभक देव ने एकनिष्ठा से श्रवण किया और उसने समकित प्राप्त किया।
___ इस प्रकार देशना देकर शेष रात्रि वहीं व्यतीत करके गौतम स्वामी प्रात: काल में उस पर्वत पर से उतरने लगे। राह देख रहे तापस उनको नज़र आयें। तापसों ने उनके समीप आकर, हाथ जोड़कर कहा- 'हे तपोनिधि महात्मा ! हम आपके शिष्य बनना चाहते हैं, आप हमारे गुरु बनो।' और हमें भी अष्टापद की यात्रा कराओ।' तब गौतम स्वामी ने सभी को अष्टापद तीर्थ की यात्रा कराकर वहीं दीक्षा दी। देवताओं ने तुरंत ही उनको साधु वेश दिया। तत्पश्चात् वे गौतम स्वामी के पीछे-पीछे प्रभु महावीर के पास जाने के लिए चलने लगे।
___मार्ग में कोई गाँव आने पर भिक्षा का समय हुआ तो गौतम गणधर ने पूछा - 'आपको पारणा करने के लिये कौन सी इष्ट वस्तु लाऊँ।' उन्होंने कहा - 'खीर लाना।' गौतम स्वामी अपने उदर का पोषण हो सके उतनी खीर एक पात्र में ले आये। तत्पश्चात् इन्द्रभूति यानि गौतम स्वामी कहने लगे - 'हे महर्षियों! सब बैठ जाओ और खीर से पारणा करों। 'तब सबको मन में ऐसा लगा कि 'इतनी खीर से क्या होगा ? लेकिन हमें तो हमारे गुरु की आज्ञा माननी ही चाहिये। ऐसा मानकर सब एक साथ बैठ गये। तत्पश्चात् इन्द्रभूति ने "अक्षीण महानस लब्धि' द्वारा उन सब को पारणा करवाया। जब तापस पारणा करने बैठे तब, 'हमारे पूरे भाग्ययोग से श्री वीर परमात्मा जगद्गुरु हमें धर्मगुरु के रूप में प्राप्त हुए हैं पिता तुल्य बोध करने वाले गौतम प्रभु हमें मिले है, इसलिए हम पुण्यवान है।' इस प्रकार की भावना करने से शुष्क काई भक्षी पाँचसौ तापसों को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दत्त आदि अन्य पाँचसौ तापसों को दूर से प्रभु के प्रातिहार्यों को देखकर उज्जवल केवलज्ञान प्राप्त हुआ। और कौडीन्य आदि शेष पाँचसौ तापसों को दूर से भगवंत के दर्शन होते ही केवलज्ञान प्राप्त हुआ। तत्पश्चात् वे वीर भगवान को वन्दन कर केवली की सभा में जाने लगे, तब गौतम स्वामी ने कहा कि हे शिष्यों! वह तो केवली की सभा है। इसलिए वहाँ नहीं बैठना चाहिये। तब श्री वीर प्रभु