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जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग ]
किया करती हैं। और लड़कियाँ रोती हैं । कहीं बाबू साहब लोग रोते हैं !"
आशुतोष बाबू ने कहा कि तो हम बाईसिकिल जरूर लेंगे जन्मदिन वाले रोज ।
बू ने कहा कि हाँ, यह बात पक्की रही, जन्म-दिन पर तुमको बाईसिकिल मिलेगी ।
इस तरह वह इतवार का दिन हँसी-खुशी पूरा हुआ। शाम होने पर बच्चों की बुआ चली गई। पाजेब का शौक घड़ीभर का था । वह फिर उतार कर रख-रखा दी गई, जिससे कहीं खो न जाय । पाजेब वह बारीक और सुबुक काम की थी और खासे दाम लग गए थे ।"
श्रीमती ने हमसे कहा कि क्यों जी, लगती तो अच्छी है, मैं भी एक बनवा लूँ ।
मैंने कहा कि क्यों न बनवाओ ! तुम कौन चार बरस की नहीं हो ?
खैर, यह हुआ । पर मैं रात को अभी अपनी मेज पर था कि श्रीमती ने आकर कहा कि तुमने पाजेब तो नहीं देखीं ? मैंने आश्चर्य से कहा कि क्या मतलब ?
बोली कि देखो, यहाँ मेज-वेज पर तो नहीं है। एक तो उसमें की है, पर दूसरे पैर की मिलती नहीं है। जाने कहाँ गई ?
मैंने कहा कि जायगी कहाँ ? यहीं-कहीं देख लो । मिल जायगी ।
उन्होंने मेरे मेज के कारात उठाने धरने शुरू किये और अलमारी की किताबें टटोल डालने का भी मनसूबा दिखाया ।
मैंने कहा कि यह क्या कर रही हो ? यहाँ वह कहाँ से आई ?