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दिल्ली में
१६१ आधिपत्य चाहती है, जिसमें किसी का साझा न हो। पृथ्वीचन्द करुणा के पास जाता है, या करुणा जब उसे लेती है, तो मानो यह उसे अच्छा नहीं लगता । जी होता है-इससे छीन लूँ , कह दूँनहीं देते । उस करुणा का जो उस बच्चे पर अधिकार है, और खुद पतिया का जो नहीं है-इस पर उसका मन न जाने कैसा अकुलाया-सा रहता है । मन को वह बहुत बोध देती है, पर उसका यह मन जैसे इस मामले में बागी हो जाता है। उसे करुणा का यह अधिकार सह्य नहीं होता । इस अधिकार के ही कारण करुणा का बच्चे पर प्यार करना भी उस बड़ा कड़वा लगता है। वह मानो उससे बच्चे की रक्षा करना चाहती है । वह बच्चे को करुणा से प्यार पाने का अवसर, भरसक, बहुत कम देती है।।
करुणा पतिया के इस ग्नेह की अतिशयता से भरे व्यवहार को देखकर और पिघल गई । उसनं समझा, पतिया कोई अपना बच्चा खो बैठी है और जब उसकी छाती मातृ-स्नेह और मातृ-दुग्ध से खूब भरी है, तभी वह यह नौकरी करने पर लाचार हुई है, और तभी यह पृथ्वीचन्द उसके सामने आया है । वह इस दुखिया के प्रति सम-स्नेह और करुण-सहानुभूति के भाव से खिंचने लगी। माँ के हृदय ने माँ का हृदय पहचाना; और जो हृदय अपने टुकड़े को खोकर, क्षत-विक्षत हो रहा है, उस हृदय के लिए माता करुणा ने अपने भीतर का करुणा का निसर्ग-स्रोत खोल दिया । वह पृथ्वीचन्द को ज्यादा-से-ज्यादा काल तक उसके पास रहने देने लगी-वुद बहुत कम मिल कर ही सन्तोष मान लेती। __लेकिन पतिया के व्यथित हृदय पर यह सहानुभूति जलन छिड़कने लगी; क्योंकि करुणा का हक़ है हक्क है ! उसका हक नहीं है । वह मानो छल से, चोरी से, दूसरे के अनुग्रह पर, इस बच्चे