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१६४ जैनेन्द्र की कहानियां [द्वितीय भाग] गैरिक-वस्त्र-धारिणी तपस्विनी-सी कोई बरस का सात बालक साथ लिए बैठी यात्रियों को खैर मना रही है, और पैसे माँग रही है। उसकी भी आँख उठो,-देखा-ये क्या-कौन ? करुणा और वकील पा रहे हैं ! वह घबड़ाई, उठी, बालक की उँगली पकड़ी। अब दूसरी ओर को भाग जायगी । पीछे को मुड़ी हाय ! पिता और माता ! वह सब-कुछ भूले गई, मानों विक्षिप्त हो गई होखो गई हो।
वह उतरकर सामने को भाग चली-उँगली पकड़े, बालक को साथ खदेड़ती जाती थी। सेठ और वकील ने पीछा किया। लोगों ने भी हल्ला मचाया; पर कोई पास पहुँच न सका, क्योंकि उसने लड़के को गंगा में फेंक दिया और पल भर में आप भी छलाँग मार गई । बरसात की गंगा जोरों पर थी, कोई बचा न सका । उन दोनों प्राणियों को, यह माँ गंगा ही अपने पेट में आत्मसात् कर गई।
दोनों के चेहरे फक रह गए । वकील ने सेठ से पछा, “यह आपकी कौन थी ?"
"बेटी।" सेठ ने वकील से पूछा-“वह आपका कौन था ?" "बेटा।" दोनों ने पूरी बात समझ ली और अपना माथा ठोक लिया।