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१६२ जनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग]
लड़की सहमी, और फिर खेलने लगी। नौकर ने मेरी ओर देखा-"बाबूजी!"मैंने कहा, "तुम जाओ, कुछ बात नहीं है।
नौकर लौटकर आ गया। उसकी बात बहूजी ने चुपचाप सुन ली 1 कुछ भी उन्होंने नहीं कहा । उन्हीं कपड़ों बाहर आई, रोतीपीटती नूनी को खचेड़ती ले चलीं। ___भीतर आकर बोली, “तेरे बाबूजी अब आकर रोकें न मुझको।" ___मैंने सुन लिया और मैं कमरे से निकलकर उनके सामने नहीं जा पहुँच सका । नूनी को एक कोठरी में मूंद दिया गया ।
मँद तो दिया गया, पर मुंदा रहने दिया जाता कैसे ? क्योंकि माँ ने बेटी को मूंदा था। और क्या मैं जानता नहीं कि इस बीच वह माँ रो भी ली खूब ? बहुत था, जी बह जाना था। लेकिन मैंने खाना न खाया, और शाम को भी न खाया ।
वह क्या गजब किया मैंने ? ___क्योंकि जब मैंने कहा, "मैंने लड़की का एक घण्टा पढ़ाने को लिया है। मेरी यही पढ़ाई है। अब तुम इसमें दखल देने नहीं पाओगी। तब उसने आसुओं से सब-कुछ, सब-कुछ, स्वीकार कर लिया।"
पर चौथे रोज वह मायके चल दी।
वह आ गई हैं, और मेरी बात सब झूठ मान लेती हैं। पर हाल वही है। क्योंकि लड़की को पढ़ना है और पिटकर