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२१६ जैनेन्द्र की कहानियाँ [द्वितीय भाग]
उसकी माँ इस बात पर भय से भर उठी। शरबती को एक साथ ऐसी बुद्धिमती हो जाते देखकर उसकी माँ अत्यन्त कातर हो गई । शरबती का मन नहीं बहला, नहीं भरमा, और वह खाली भी नहीं हुई। वह ऐसी भरी रही कि कूल को तोड़ कर बहने की उसमें आवश्यकता न प्रकट हो सकी । उसकी माँ ने आतङ्क से भर कर मुझ से बार-बार कहा, "अरे, क्या वह भी मुझे छोड़कर चली जायगी ? उसे क्या हो गया है ? तुम बताओ न, मैं क्या करूँ ?"
किन्तु मैं क्या बताता।
तीन रोज़ खींच कर चौथे दिन शरबती खाट पर गिर गई। उसे बुखार हो पाया। देखते-देखते बुखार बहुत तेज हो गया। वह बेहोश हो जाती और बड़बड़ाने लगती । उसकी माँ की चिन्ता का ठिकाना न था । डाक्टर भी आये, हकीम और वैद्य भी आये। पर, बच्ची की बेकली कम होने में न आई । बेहोशी सबेरे के घंटों में कुछ उतरी पाती, उस समय गुम-सुम शरबती कमरे की छत की
ओर देखती, या दीवार की ओर देखती । तब वह अपनी माँ को भी पहचानती थी, मुझे भी पहचानती थी । पर हमारे लिए मानो उसे कुछ कहना न था । हमें सूनी आँखों से देखती और उसी भाँति दृष्टि लौटा लेकर उन्हीं आँखों से वह दीवार की ओर देखने लगती।
मैं पुकारता, “बेटा शरबत !" .
माँ पुकारती, "ओ सत्तो ! ओ मेरी बिटिया रानी ! श्रो, मेरे बेटे राजा!"
शरबती सुनकर चौंकती और आँखें फैलाकर हम को देखती रहती।
वह बहुत ही दुबली हो गई थी। शरीर में सीक-सी हड्डियाँ