Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 240
________________ रामू की दादी २२५ रामचरण चुप रहा । बुढ़िया सोचती थी कि अगर यह हाँ कह दे, तो इससे गिन्नी वह वापिस नहीं लेगी। इसमें उसे सन्देह न था कि अगर और कुछ नहीं होता, तो वह खुलकर यही कह दे कि उसने नहीं ली । तब वह उसे छोड़कर कहेगी, "अच्छी बात है, नहीं ली । तो जाओ खोजो, वह कहाँ गई।" वह इसके लिए भी तैयार हो सकती थी कि इसी में कुछ दिन निकल जायें और फिर बात आई-गई हो जाय; लेकिन यह जो रमचन्ना सामने गुम-सुम खड़ा है, पूरी तरह खुलकर बात भी नहीं कर सकता, जैसे उसे मैं खा जाऊँगी, यही उसे बड़ा बुरा लग रहा था । कहा "अरे, बोल ! कुछ मुंह से कहता क्यों नहीं ?" रामू ने दादी का हाथ पकड़ कर कहा, "अम्माँजी, श्रम लेबली खायेंगे।" हाथ से रामू को अलग झिटककर दादी ने कहा, "हरामी, राकशस, बोलता क्यों नहीं ?" बिल्कुल खोए-से बैठे रामू को देखता हुआ रामचरण चुप हो रहा। दादी का सारा शरीर काँप कर थर्राने लगा। उन्होंने हिलते हुए हाथ को उठाकर चीखकर कहा, "नमकहराम ! निकल जा मेरे यहाँ से ! (और तभी जरा मद्धम भी वह पड़ गई।) हम कहते हैं, बोल, बात का जवाब दे, सो उसमें इसकी मौत आती है !" रामचरण ने कहा, "अच्छा माँजी, मैं चला जाता हूँ।" रामू बोला, "लमअन्ना।" दादी ने अत्यन्त क्रुद्ध होकर, मुंह बिगाड़ कर कहा। "माँजी, म्ये चिल्या जाता हूँ।" क्यों एक गिन्नी से तेरा भर गया पूरा पेट, जो चला जाता है ? चल मुझे नहीं चाहिए तेरी

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