Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

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Page 242
________________ रामू की दादी २२७ पाँच रुपए उसके हाथ में रहते थे, वह पूरे पचास चाहती थीं। लेकिन गुस्से में अब वह पाँच अतिरिक्त रुपए वापिस मटके में नहीं रख सकी और उसमें जोर-जोर से वही गूदड़ हँसकर भर दिया। ___ लौटकर चिल्लाई, “रधिया, रधिया ! अरी ओ कम्बख्त की बनी, सुनती है ?" ___ रधिया जब गीले हाथों को लेकर सामने आई, तो दादी ने कहा, "तू बहरी है, जो इतनी देर से चीख रही हूँ और तू सुनती नहीं है ? ले ये रुपए । वह रमचन्ने का बच्चा अभी बाहर ही होगा। अभी जा । ये सब रुपए, उसके सिर पै मारकर श्रा। कहना, मुझे नहीं चाहिए उसकी गिन्नी और कहना, मैं अब उसका मुंह न देखें, और जो उसने रामू की तरफ कभी देखा, तो अपनी खैर न समझे। देखती क्या खड़ी है, जाती क्यों नहीं ? समझ लिया न, सिर पर देकर मारियो । चल, जा।" वहीं लौटीं तो सोचती थीं कि वह रामू बदमाश, ऐसे थोड़े ही हाथ आयगा, बिना पीटे वह ठीक न होगा। लेकिन गई तो देखा, वह सो गया है, और आँसू उसके गाल पर से अभी नहीं सूखे हैं। इस बिना माँ-बाप के बेटे को अपनी छाती में भरकर, चूमकर, वह रोने लगी। पहले तो इस आकस्मिक उपद्रव पर चौंककर, और दादी को देखकर वह बच्चा भी चिल्लाया, और फिर आँसू ढारती दादी का मह निहारकर वह अपने छोटे-छोटे दोनों हाथों से दादी की ठोडी के साथ खेलने लगा। और दादी के आँसू और भी अटूट होकर भरने लगे।

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