Book Title: Jainendra Kahani 02
Author(s): Purvodaya Prakashan
Publisher: Purvodaya Prakashan

View full book text
Previous | Next

Page 218
________________ अपना-पराया २०३ रही है, उसके पहुंचने पर काम-धाम में बहुत व्यस्त है, प्रेम-सम्भाषण के लिए तनिक भी अवकाश नहीं निकाल पाती। वह मानों उससे बची-बची काम कर रही है। वह नहीं बताना चाहता कि दो हजार रुपया उसकी कमर से बन्धा है-दो हजार ! वह समझना चाहता है और अपनी आँखों के आगे ( कल्पना द्वारा) देख लेना चाहता है, किस प्रकार मेरे पीछे इसने दिन काटे ? विपदा में इस बेचारी का साथ देने के समय वह और कहीं क्यों भटकता रहा ? बे-पैसे, बे-आदमी, कैसे यह अपना काम चलाती रही होगी ?और साढ़े चार बरस का यह करनसिंह, ओह ! बिना किसी की मदद के दुनिया में कैसे श्रा पहुँचा होगा ? वह अपनी पत्नी की सूरत बार-बार देखना चाहता है, लेकिन वह मौका नहीं लगने देती!... यही करनसींग है ? अरे, यह तो बड़ा हो गया ! बिलकुल अपनी माँ पर है। हाँ, करनसींग ही तो है। क्यों जी, आपका नाम करनसींग ही है ? हम कौन हैं, बताइएगा ? अपने बाप को जानते हैं ? वह लड़ाई पर गया हुआ है। मैं उसी के पास से आ रहा हूँ। वह आपको बहुत प्यार करता है । यह कहकर दोनों हाथ बढ़ाकर उसने बेटे को अपनी गोद में लेना चाहा । __ तभी उसकी आँख खुल गई और उसने देखा, घर की मंजिल अभी दूर पड़ी है और वह अभी सराय के अजनबी कमरे में है। उसने माथा पोंछा और कमर में बन्धी रुपयों की न्यौली सम्हाली । समय उसको भारी लगता था। उसने बातचीत के लिए सराय-वाले को बुलाया और मालूम होने पर भी दुबारा मालूम किया कि पूरे दो रोज की मंजिल अभी और है। इधर के हाल-चाल मालूम किये और अपनी फौज की बहुत-सी बातें बताई। उसने उस जिन्दगी का स्वाद बताया जहाँ हर घड़ी मौत का अन्देशा है और जहाँ से

Loading...

Page Navigation
1 ... 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246